________________
३४
जैनमेघदूतम् प्राथितः । किरूपेण तेन-सौभ्रातृभाजा : किंरूपः सः-भ्राजिष्णुः श्री शोभनशोल विभुषः । किं कुर्वन्-नर्मकर्माणि हास्यकर्माणि विदवत् कुर्वन् । पुनः किं रूपः-अद्वेषरागः रागद्वेषरहितः ।।५०॥
इति श्री विधिपक्ष मुख्याभिधान श्रीमदञ्चलगच्छेश्वर श्री जय कीर्तिसूरि शिष्य पण्डित महौमेरुगणि विरचितायां मेघदूतमहाकाव्य बालावबोधवृत्तौ नेमोश्वरबालकेलिवर्णनोनाम
प्रथमः सर्गः ॥ बलदेव के साथ कुछ गुप्त मन्त्रणा कर मोहभाव से युक्त श्रीकृष्ण द्वारा (श्रोनेमि) अत्यन्त आदर से खेलने के लिए आमन्त्रित किये गये। देदीप्यमान शोभावाले राग-द्वेष से रहित श्रीनेमि प्रभु ने श्रीकृष्ण के अन्तःपुर में अबाधगति से (निर्विघ्न) हास्यकोड़ा को अर्थात् खेले ।।५०।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org