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भूमिका : १३ इसी प्रकार एक अन्य स्थल पर भी सन्देश-काव्य से सम्बन्धित रूपरेखा प्राप्त होती है। जब श्रीकृष्ण गोकूल से मथरा आ जाते हैं तथा उन्हें फिर बहुत समय तक गोकुल जाने का अवसर नहीं मिलता है, तब वे अपने बाबा नन्द एवं माँ यशोदा के दुःख को दूर करने हेतु और गोपिकाओं को धीरज बंधाने हेतु अपने प्रिय सखा उद्धव को गोकुल भेजते हैं।' गोकुल पहुँच कर उद्धव नन्द-यशोदा एवं गोपिकाओं को सारा समाचार सुनाते हैं और शीघ्र ही श्रीकृष्ण के आगमन का आश्वासन भी देते हैं।
नन्द-यशोदा के शोक को शान्त कर उद्धव जब मथुरा प्रस्थान हेतु उद्यत होते हैं, तब उस समय कुछ गोपिकाएँ रथ को रोक कर खड़ी हो जाती हैं। तभी कहीं से एक भ्रमर आ जाता है, गोपिकाएँ उसको श्रीकृष्ण का दूत समझ कर उससे कहती हैं
मधुप कितवबन्धो मा स्पृशाघ्रि सपन्याः कुच-विलुलित-माला-कुङ्कुमश्मश्रुभिर्वः । वहतु मधुपतिस्तन्मानिनीनां प्रसाद
यदुसदसि विडम्ब्यो यस्य दूतस्त्वमीदृक् । इन प्रसङ्गों के अतिरिक्त एक अन्य स्थल पर भी दूत-सम्प्रेषण का प्रसङ्ग प्राप्त होता है। रुक्मिणी का पाणि-ग्रहण शिशपाल से निश्चित किया जाता है, पर रुक्मिणी श्रीकृष्ण से विवाह करने की इच्छा के कारण उस सम्बन्ध को नहीं चाहती है । इसलिए वह विदर्भ से द्वारका श्रीकृष्ण के पास दूत के रूप में एक ब्राह्मण को भेजती है ।
दूत श्रीकृष्ण के पास पहुँच कर सन्देश सुनाता है। श्रीकृष्ण पूर्व योजनानुसार रुक्मिणी को पार्वती के मन्दिर से अपहृत कर लाते हैं । इस प्रसंग में दूत द्वारा पूर्व अनुराग के कारण दूत-सम्प्रेषण स्पष्ट ही होता है ।
बौद्ध जातक-बौद्ध साहित्य का अवलोकन करने पर भी बहुत कुछ जानकारी दूत अथवा सन्देश सम्प्रेषण के प्रति प्राप्त होती है। सर्वप्रथम जो एक कथा मिलती है, वह इस प्रकार से वर्णित है कि काशी का एक श्रेष्ठी अपने कलण्डुक नामक दास की खोज में अपने एक पालतू शुक को
१. श्रीमद्भागवत, १०।४६।१-८ । २. वही, १०।४७।१२। ३, वही, १०१५२।२१-२७ ।
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