________________
प्रथम सगं
नेत्रों के, पुष्प सुगन्ध उनके मुखामोद के और उत्तम रत्न उनके शरीर के शल्य हैं ॥२३॥
नेमि के सुन्दर वदन से पूर्णचन्द्र सदृशता प्राप्त करता है, नेमि के नेत्रों से कमल-दल सदृशता प्राप्त करता है, नेमि के मुखपरिमल से पुष्पपराग सदृशता प्राप्त करता है, नेमि के शरीर से रिष्ट-रत्न सदृशता प्राप्त करते हैं। यदि विद्वज्जन कहीं भी वर्णनीय पदार्थ-समूहों की भगवान् के अङ्गों द्वारा उपमा देते हैं तो तो भी उपमा धिक्य दोष होता है ।। २४ ॥
इस युग्मक श्लोक में दो बातें अवधेय हैं--पहली यह कि कविपरम्परा में अङ्गों का वर्णन ऊपर से नीचे की ओर किया जाता है किन्तु यहाँ पर अङ्गों का वर्णन नीचे से ऊपर की ओर है। विद्वज्जनों के अनुसार अर्हतों का रूप वर्णन चरणों की ओर से चढ़ता हुआ ऊपर की ओर किया जाता है। दूसरी बात है उपमाधिक्य दोष । जहाँ जहाँ उपमान उपमेय से अत्यधिक गुणों वाला होता है, जैसे-कमल भगवान् के चरणों के समान है। यहाँ कमलरूपी उपमेय से उपमान चरणों के अत्यधिक गुणवान् होने से उपमाधिक्य दोष है। प्रस्तुत सभी उपमाओं में इसी शैली का प्रयोग किया गया है।
भाण्डागारं गतभयममुं वीक्ष्य हृष्टः समस्तान् धयों दार्यादिकगुणमणीनत्र वेधा न्यवत्त । तान् किं वक्तुं गणयितुमथ प्रेक्षितुं भूर्भुवः स्वःप्रष्ठा देवा मुखकरदृशां साक्षिणोऽधुः सहस्रम् ॥२५॥ भाण्डागारं ० हे जलधर ! वेधा ब्रह्मा अत्र श्रीनेमिनं समस्तान् धैर्योदार्यान् गुणमणीन् न्यधत्त न्यस्तवत् । किरूपो ब्रह्मा अम पालमितंनतमय भाण्डागारं वीक्ष्यदृष्टवा हर्षितः । किमित्युत्प्रेक्ष्याया-हे मेघ तान् पैंयाँदिकगुणगणमणोन् वक्तु जल्पितु गयितु संख्याकर्तुं अथ पुनः प्रेक्षितु विलोकयितुं भूभुस्व:प्रष्ठा। पातालाकाशस्वर्गमुख्यादेवाः इन्द्राः साक्षिणः सन्तः मुखकरदृशां वदनहस्तनेत्राणां सहस्र अधुः इव धृतवन्त इव ।। २५ ॥
नेमिनाथरूपी निरापद कोश को देखकर प्रसन्न हुये ब्रह्मा ने समस्त धैर्य, औदार्यादि गुणरूपीमणियों को इसमें न्यास की तरह स्थापित कर दिया अर्थात् सुरक्षातु रख दिया। उन गुण-मणियों के कहने, गिनने और देखने के लिये पाताल, भूमण्डल और स्वर्ग के मुख्य देवताओं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org