________________
प्रथम सर्ग .
इस श्लोक में परमेश्वर से मेघ की अपूर्वता इस प्रकार है-परमेश्वर रजस् (रजोगुण) की वृद्धि करके विश्वसृजन करता है पर मेघ रजस् (धूलि) को शान्त कर विश्वसृजन करता है, परमेश्वर तम (तमोगुण) का विस्तार कर उसका संहार करता है पर मेघ तम (अन्धकार) का विनाश हो करता है, परमेश्वर सत्व (सतोगुण) को स्वीकार कर उसका पालन करता है पर मेघ सत्व (अपने सार अर्थात् जल) का त्याग कर विश्वपालन करता है, परमेश्वर नम्य (नमन के योग्य) है पर मेघ अतिशयनत है, परमेश्वर अयोनि (जन्म स्थान आदि से होन) है पर मेघ धारायोनि है, अतः स्पष्ट ही यह मेघ परमेश्वर से अपूर्व है।
त्वं जीमूत ! प्रथितमहिमानन्यसाध्योपकारैः कस्त्वां वीक्ष्य प्रसृतिसदृशौ स्वे दृशौ नो विधत्ते । दानात्कल्पद्रुमसुरमणी तौ त्वयाऽधोऽक्रि येतां कस्तुभ्यं न स्पृहयति जगज्जन्तुजीवातुलक्ष्म्यै ॥१२।। त्वं जीमूत ० हे जीमूत ! त्वम् अनन्यसाध्यो पकारैः न अन्यैः साध्याः साधयितु शक्याः अनन्यसाध्या एवंविधायि उपकारः तैः प्रथितमहिमा विख्यातप्रभावो वर्त्तसे । कः को जनः त्वां वीक्ष्य भवन्तं विलोक्य स्वेदशौ स्वकीये नेत्र प्रसूतिसदृशौ अञ्जलिसमानौ नो विधत्ते । हे मेघ ! त्वया दानात् तौ सर्वलोकप्रसिद्धौ कल्पद्रुमसुरमणी अधोऽक्रियेताम् अधःक्रियेते स्म । हे जलद ! तुभ्यं त्वां को न स्पृहयति अपितु सर्वकोऽपि अभिलषति । किंरूपाय तुभ्यम् जगज्जन्तुजीवातुलक्ष्म्यं जगज्जन्तूनां जीवातुरूपा जीवनौषध प्रायोलक्ष्मीर्यस्य स तस्मै ॥१२॥
हे जीमूत ! जो उपकार अन्यों के लिए असाध्य हैं (अर्थात् जिसे समुद्रादि अन्य कोई भी नहीं कर सकता) उन उपकारों के करने के कारण आप विख्यात महिमा वाले हैं (क्योंकि वृष्टि के द्वारा आप लोक के समस्त जीवों को सब प्रकार से सन्तुष्ट करते हैं) आपको देखकर ऐसा कौन है. जी अपनी दृष्टि को फैली हुई हथेली के सदृश विशाल नहीं बना लेता (अर्थात् आपके विस्तार्ण रूप को देखने के लिए कौन अपनी आँखों को विस्तृत नहीं कर लेता आपने अपने दान से उन प्रसिद्ध कल्पवृक्ष और चिन्तामणि को भी नीचे कर दिया है, जगत् के जोवन को लक्ष्मी (जल, विद्युत् आदि) को धारण करने आपको कौन नहीं चाहता ॥१२॥
कामं मध्येभुवनमनलंकारकान्ता अनुत्वांमंत्रस्येव स्मरति च तवागोपगोपं जनोऽयम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org