________________
जैनमेघदूतम् केव-रवेर्गतिरिव। यथा रवेः सूर्यस्यगतिः दैव्येमार्गे आकाशपथे अव्याबाधा हे पयोद ! तव स्वागतं सुखागमनं वर्तते ॥१०॥
इस श्लोक में राजीमती मेघ से घनिष्ठता स्थापित करने के लिए कुशल प्रश्न करती है-हे धाराधर ! आपकी कुशल तो है ? आपका शरीर आरोग्यशाली तो है ? राजहंस और राजहंसी जिस प्रकार सरोवर की सेवा करते हैं, उसी प्रकार गर्जन और विद्युत् आपकी सेवा कर रहे हैं न ? जिस प्रकार आकाशमार्ग में सूर्य को गति निर्बाध है, उसी प्रकार हो तुम्हारे वृष्टि-विधान में स्वभावसिद्ध करुणा के स्फुरण में कोई बाधा तो नहीं हो रही है ? मैं आपका स्वागत करती हैं ॥ १० ॥
किसी से कोई कार्य सम्पादित करवाने से पूर्व उसकी प्रशंसा की जाती है, अतः राजीमती मेघ की भी प्रशंसा करती है
विश्वं विश्वं सृजसि रजसः शान्तिमापादयन् यः सङ्कोचन क्षपयसि तमःस्तोममुन्निवानः । स त्वं मुश्चन्नतिशयनतस्त्रायसे धूमयोने ! तद्देवः कोऽप्यभिनवतमस्त्वं त्रयोरूपधर्ता ॥११॥ विश्वविश्वं • हे धूमयोने ! हे जलधर ! तत् तस्मात् वाताः त्वं त्रयोरूपधत्त हरिहरब्रह्मरूपधारी कोऽपि अभिनवतमः अतिनवीनः देवो वर्त्तसे । यत् यस्मात्कारणात् यः त्वं विश्वं सम्पूर्ण विश्वं जगत् सृजसि निष्पादयसि । किंकुर्वन्-रजस: रेणोः शान्तिम् आपादयन् उत्पादयन् । ब्रह्मा किल विश्वं सृजति । परं रजसः रजोगुणस्य शान्ति न आपादयति अतोऽभिनवत्वम् । यः त्वं सङ्कोचेन अविद्यमानतया विश्वं विश्वं क्षपयसि संहरसि । किंकुर्वाण:-तमस्तोमं मेघान्धकारसमूह उन्निह नुवानः गोपयन् । रुद्रः किल विश्वं क्षपयति परंतमः स्तोमं तमोगुणगणं न उह नुते अतोऽभिनवत्वं । हे धूमयोने ! यः त्वं विश्वं विश्वं त्रायसे रक्षसे किंकुर्वन्-सत्वं अर्थात् पानीयं मुञ्चन् । कीदृशस्त्वम् अतिशयनतः अतिशयेन नम्रीभूतः । विष्णुः किल विश्वं रक्षति परं सत्वं सत्वगुणं न मुञ्चति अतोऽभिनवत्वम् ॥११॥
हे धूमयोने ! आप अपने सत्त्व (जल) से पृथ्वी को सींचते हुए अखिल विश्व की सृष्टि करने वाले तथा अन्धकार समूह का विनाश करते हुए उस सत्त्व (जल) के अभाव द्वारा विश्व का क्षय करने वाले एवं अपने उसी सत्व (जल) की वर्षा कर विश्व का पालन करने वाले, अतिनम्र कोई अभिनव त्रिरूपधारी देव हैं ।। ११ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org