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________________ प्रथम सर्ग ध्यात्वैवं सा नवधनधृता भूरिवोष्णायमाना युक्तायुक्तं समदमदनावेशतोऽविन्दमाना। अस्त्रासारं पुरु विसृजती वारि कादम्बिनीवद्दीना दुःखादथ दकमुचं मुग्धवाचेत्युवाच ॥९॥ ध्यात्वं सा • अथ अनन्तरं सा राजीमती एवं पूर्वोक्तं ध्यात्वा दकमुचं मेघ प्रति मुग्धवाचा कृत्वा इति कथ्यमानं उवाच अब्रवीत् । किविशिष्टा सा-नवधनघृता नूतनजलदसिक्ता भूरिवधरित्रीव ऊष्मायमाणा वाष्पायमाना । पुनः कीदृशी सा-प्रकृष्टो मदो यस्मात् समद एवंविधो यो सो कामस्तस्य आवेशतः आटोपतो युक्तायुक्तं घटमाना घटमानं अविन्दमाना अप्राप्नुवती । सा किं कुर्वती पुरु प्रभूतं अनासारं अस्रवेगवद् वृष्टि विसृजती मुञ्चती। किंवत्-कादम्बिनी मेघमाला प्रचुरं वारि पानीयं विसृजति । पुनः कीदृशो सा-दुःखाद्दीना दीनभावंप्राप्ता ॥९॥ इसके अनन्तर नवीन मेघों से सिक्त भमि (वर्षा से भींगी हुई भूमि से एक विशेष प्रकार की सोंधी सी निकलने वाली गन्ध) की तरह निःश्वासों को छोड़ती हई तथा मद (हर्ष और मोह) से युक्त मदन (काम) के आवेश के कारण युक्तायुक्त का विचार न करती हुई राजीमती, मेघमाला जिस प्रकार प्रभूत जल को बरसाती है उसी प्रकार, अश्रुओं की धारावृष्टि करती हुई दुःख से अति दीन होकर पूर्व में कहे गये के अनुसार ध्यान करके मधुर वाणी में मेघ से बोली ॥ ९ ॥ राजीमती मेघ से जो कहती है, उसका कथन करते हैंमेघप्रति यदुवाच तदाहकच्चिद्धाराधर तव शिवं वार्तशाली च देहः सेवेते त्वां स्तनिततडितौ राजहंसौ सरोवत् । अव्याबाधा स्फुरति करुणा वृष्टिसर्गे निसर्गान्मार्गे दैव्ये गतिरिव रवेः स्वागतं वर्तते ते ॥१०॥ कच्चिद्धारा ० कच्चिदिति अभीष्टप्रश्ने । हे धाराधर ! तव शिवं निरुपद्रवभावो वर्तते ? हे मेघ ! तव देहः वार्तशाली नीरोगी वर्त्तते ? हे जलद ! स्तनिततडितो गजितविद्युतौ त्वां सेवेते। किंवत्-सरोवत् यथाराजहंसौ सरः सेवेते । राजहंसश्चराजहंसी च राजहंसौ। हे जलधर ! ते तव वृष्टिसर्गे वृष्टिरचनायां निसर्गात् स्वभावात् करुणा दया अव्याबाधा निःपीडा स्फुरति विच्छम्भते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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