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जैनमेघदूतम् स्तोकभाररूपां । यद्वा अथवा हे लोकाः ! तदहं जाने यत् दैवे विधातरि विमुखीभावं पराङ्मुखत्वं दधति सति धारति सति आप्तोऽपि हितकारकोऽपि अमित्र त् अमित्रमिवाचरेत् । पूर्वोक्तमथं दृश्यं दृढयति । मातृजङ्घा तर्णकस्य (वत्सस्य) नियमने बन्धने किमु कथं कोलः कीलको न स्यात् अपितु स्यात् । देव क्वसति-दैवेविमुखीभावं दधति सति ।। ७ ।।
उन ज्ञानवान् श्रीनेमि ने अपने में आसक्त तथा तुच्छ मुझको किस कारण से साँप को केंचुल (सर्प-शरीर में लिपटी तथा हल्की निर्जीव खाल) की तरह छोड़ दिया, यह मैं नहीं जानती। अथवा दैव के प्रतिकूल होने पर आप्तजन (अपने इष्टजन) भी शत्रुवत् हो जाते हैं (क्या) बछड़े को बाँधने में गाय को जङ्घा बन्धन नहीं बनती ? (गोष्ठ-वह स्थान जहाँ गाय बाँधी जाती है--में गाय दुहने वाले लोग दूध पीने वाले बछड़े को गाय की जाँच में बाँधकर दूध दुहते हैं, इस प्रकार वत्सला गाय विधिवश अपने बछड़े के ही बन्धन को हेतु होतो है) । ७॥
तप्ताश्मेव स्फुटति हि हिरुक् प्रेयसो हृन्ममैततत्कारुण्यार्णवमुपतदं प्रेषयाम्यब्दमेतम् । मन्दं मन्दं स्वयमपि यथा सान्त्वयत्येष कान्तं मत्सन्देशैर्दवमिव दवप्लुष्टमुत्सृष्टतोयैः ।।८।।
तप्ताश्मेव . हे लोकाः ! एतत्मम हृद् हृदयं प्रेयसो भर्तुः हिरुक् विना तप्ताश्मवत् तप्तपाषाणइव हि निश्चितं स्फुटति द्विधाभावं प्राप्नोति । तत्कारणात् अहं एतं अब्दं मेघ उपतदं तस्य श्रीनेमिनाथस्य समीपं प्रेषयामि किरूपंअब्दकारण्यार्णवं दयाभावसमुद्रं । प्रेषणेकारणमाह- यथा एष अब्दो मेघो मत्सन्देश: ममसन्देशकैः कान्तं मन्दं मन्दं स्वयमपि सान्त्वति समभावंप्रापयति । किमिवस्वमिव वनमिव । यथा दवं वनं दवप्लुष्टं दवदग्धं संतं उत्सृष्टतोयः मुक्तजलैः एष अब्दः सान्त्वयति ।। ८॥
यह मेरा हृदय स्फुट रूप से प्रिय के बिना तप्त-पाषाण की भांति विदीर्ण हो रहा है, इस कारण मैं सामने दृश्यमान करुणा के सागर मेघ को अपने प्रेयस के समीप भेजती है। जिस प्रकार यह मेघ अपने मुक्त जल से दावानल से दग्ध वन को धीरे-धीरे शान्त करता है, उसी प्रकार यह मेरे स्वामी (श्रीनेमि) के हृदय को भी मन्द-मन्द गति से स्वयं ही मेरे सन्देश के द्वारा सान्त्वना देगा (शान्त करेगा) ॥८॥
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