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________________ जैनमेघदूतम् विनाशकारी । द्वतीयोकं द्वितीयमिदं कष्टं यत् एष यौवनारम्भो वर्तते । किरूपो यौवनारम्भः-प्रकृतिगहनः प्रकृत्या स्वभावेन गहनो दुस्तरः । तार्तीयोकं तृतीयं इदं कष्टं यत् सैष हृदयदयितः हृदयवल्लभः श्रीनेमिनाथः भोगात् व्यराक्षीत् विरतः । तुर्य चतुर्थं तावत् इदं कष्टं यत् न्यायात् न्यायोपेतात् पथो मार्गात् मानसं चत्तं न चलति अन्यभर्तरि इच्छां न करोति इत्यर्थः ॥४॥ राजीमती ने जो सोचा, उसका कथन करते हैं एक तो यह कि विरहणियों के हृदय में द्रोह उत्पन्न करने वाला वर्षाकाल, दूसरा यह स्वभाव से दुरूह तारुण्यप्रवेश, तीसरा यह कि हृदयवल्लभ ये श्रीनमि (मानसप्रत्यक्ष के कारण साक्षात् समीपवती अनुभयमान) भोग से विरक्त हो चके हैं और चौथा यह कि मेरा मन धर्मोचित मार्ग से भ्रष्ट नहीं होता (अर्थात् मन अपने स्वामो को छोड़कर अन्य की प्रार्थना नहीं करता), हाय ! क्या होना है ? ॥४॥ कृष्णो देशप्रभुरभिनवश्चाम्बुदः कालिमानं न्यध्यासस्ते तदवगमयाम्येनसैवाजितेन । तत्रैकोऽस्मत्पतिविरचिताभ्रेषपेषानिषेधादन्योऽस्माकं गहनगहने विप्रयोगेऽग्निसर्गात् ।।५।। कृष्णो देश कोकायत् देशप्रभुः देशस्वामी कृष्णः । अस्मत्पतिविरचिताभ्रेषपेषानिषेधात् अस्मत्पतिना श्रीनेमिना विरचितो योऽसौ अभ्रेषस्य न्यायस्य पेषः संचूर्णानन्तस्य अनिषेधात् अनिवारणात् । अजितेन उपार्जितेन एनसैव पापेनैव कालिमान न्यध्यास्ते "राज्ञिकृतं पापं'' इति वचनात् । अन्यः अभिनवो अम्बुदः अस्माकं मत्सदृशीनां विप्रयोगे विरहे अग्निसर्गात् अग्निरिवसर्गः रचनाअग्निसर्गस्तस्मात् अजितेन एनसव कालिमानं न्यध्यास्ते । कीदृशे विप्रयोगे-गहनगहने गहनंकान्तारं तद्वत् गहने दुस्तरे ।। ५ ॥ देशस्वामी कृष्ण और नवाम्बुद (नवीन उमड़ कर छाये काले-काले मेघ)--ये दोनों ही अपने जिस अजित पाप से कृष्णत्व को प्राप्त हुए हैं, उसे मैं जानती हूँ। उनमें से एक यह है कि देशस्वामी कृष्ण तो हमारे पति (श्रीनेमि) के द्वारा की गई न्याय की हत्या (पति द्वारा स्वीकार कर पुनः त्याग) का निषेध न करने के कारण (क्योंकि प्रजा द्वारा किया गया पाप राजा को लगता है और श्रीनेमि कृष्ण के अनुज थे ही) कृष्णत्व को प्राप्त हुए हैं और दूसरा यह अम्बुद (मेघ) गहन वियोग में अग्नि तुल्य सन्ताप पहँचाने के कारण कृष्णत्व को प्राप्त हुआ है ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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