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प्रथम सर्ग . जिसमें प्रमुख है), जिसमें कामदेव आदि बलिष्ठ वीर हैं, की ओर-नवीन प्रत्यञ्चा तथा बाण से युक्त धनुष के ग्रहण करने के समान शीलादि नव गुणों एवं आहारादि शुद्धि से समन्वित दीक्षा ग्रहण करने पर, समस्त संसार को छलने वाले कामरूपी (श्रीनेमि के उस) प्रमुख शत्र के द्वारा यह जानकर कि यह हमारे शत्रु श्रीनेमि की भक्त है-अत्यन्त पीड़ित की जाती हुई प्रियविरहिता भोजकन्या मूच्छित हो गई ॥२॥
सङ्क्रीचीभिः स्खलितक्वचनन्यासमाशंपनीतैः स्फीतैस्तैस्तै मलयजजलादि शीतोपचारैः । प्रत्यावत्ते कथमपि ततश्चेतने दत्तकान्ता
कुण्ठोत्कण्ठं नवजलमुचं सानिध्यौ च दध्यौ ॥३॥ सद्बोचोभिः ० ततो अनन्तरं सा भोजकन्या राजीमती नवजलमुचं नूतनमेघं निवध्यो ददर्श । च पुनः ध्यातवतो अर्थात् एवं वक्ष्यमाणं हृदि । कथमपि महता कष्टेन चेतने चैतन्ये प्रत्यावृत्तेसति पश्चाद्वलितेसति । कैः कृत्वा तैस्तैः सर्वलोकप्रसिद्धः मलयजजलं चन्दनजलम् आ जलक्लिन्न वस्त्रमित्यादिशीतोपचारैः । किंभृतः-स्फोतैः गुरुतरैः। किंभूतं मेघ-दत्तकान्ताकुण्ठोत्कुण्ठं दत्ता कान्ते भर्तरि कान्तायां वा आकुण्ठा तीक्ष्णा उत्कण्ठा अभिलाषो येन स तम् ॥३॥ मूर्छा के अनन्तर क्या हुआ ? उसका कथन करते हैं
सखियों के द्वारा शोक गद्-गद् वचनों के साथ शीघ्र ही किये गये लोक-प्रसिद्ध चन्दन-जला-वस्त्रादि-प्रभत-शीतोपचार के द्वारा किसी प्रकार चेतना के लौटने पर राजीमती ने पति के हृदय में तीव्र उत्कण्ठा जगाने वाले मेघ (वर्षाकाल में नये-नये ऊँचे मेघों को देखकर युवतियों के मन में अपने प्रिय के प्रति तथा युवकों के मन में अपनी प्रिया के प्रति सहजतया उत्कण्ठा उत्पन्न हो जाती है) को देखा और सोचा ॥३॥
एक तावद्विरहिहृदयद्रोहकृन्मेघकालो द्वैतीयीकं प्रकृतिगहनो यौवनारम्भ एषः । तार्तीयोकं हृदयदयितः सैष भोगाव्यराङ्क्षी
तुर्य न्याय्यान्न चलति पथो मानसं भावि हा किम् ॥४॥ मेघदर्शनानन्तरं यद्ध्यातवती तदाह
एकतावद्वि ० हा इति खेदे । कि भावि कि भविष्यति । एकं तावत् इदं कष्टं यत् मेघकालो वर्तते । किन्तु मेघकालः विरहिहृदयद्रोहकृत् विरहिणां हृदयस्य
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