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२२६ : जैनमेघदूतम् पारस्परिक भिन्नता अवश्य होती और वही हुआ भी है। इसी कारण इन दोनों काव्यों को पारस्परिक-तुलना ठीक तरह से की ही नहीं जा सकती है। कारण अनेक हैं इसके, कुछ अर्थों में मेघदूत एवं जैनमेघदूत में पारस्परिक ताल-मेल नहीं बैठता। फिर भी अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार दोनों ही एक-दूसरे से कम नहीं कहे जा सकते हैं।
निष्कर्षतः कह सकते हैं कि कल्पना के कोमलत्व में, प्रेम की पवित्रता में, विश्वास की महिमा में, भाषा की सरलता में तथा लालित्य में यदि कालिदास का मेघदूत श्रेष्ठ है तो घटनाओं की विचित्रता में, भाव की तरंगक्रीडा में, मानव-चरित्र के सूक्ष्म विश्लेषण में एवं भाषा के गाम्भीर्य में मेरुतुंग का जैन-मेघदूत श्रेष्ठ है। दोनों ही काव्य एक-दूसरे के सहयोगी हैं, न कि परस्पर प्रतिद्वन्द्वी।
इसी को इस भाँति भी व्यक्त कर सकते हैं कि मेघदूत यदि शरद्ऋतु की स्वच्छ निर्मल चाँदनी है तो जैनमेघदूत नक्षत्र-खचित नील गगन; एक नृत्य है तो दूसरा अश्रु; एक वसन्त है तो दूसरा वर्षा और एक उपभोग है तो दूसरा पूजा। धन्य कालिदास ! धन्य मेरुतुङ्ग।
इति शम्
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