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________________ भूमिका : २२५ नहीं समझ में आ सका हो । यदि इस विषय में मेरा कोई कथन अमूलक हुआ हो, तो वह मेरा भ्रम ही हो सकता है, धृष्टता नहीं । जहाँ तक मेरी धारणा है समालोचना, नाम से मोहित होकर यह निश्चय कर बैठती है कि मैं केवल प्रशंसा ही करूंगी और जहाँ पर अर्धशून्य रचना प्रतीत होगी वहाँ समालोचना नहीं उसकी आध्यात्मिकता को प्रकट करूँगी । परन्तु इसको समालोचना न कहकर स्तुतिवाद ही कहा जा सकता है। किसी भी महाकवि के प्रति असम्मान तो अवश्य धृष्टता है, परन्तु अपनी युक्ति और विवेचना शक्ति को समालोच्य व्यक्ति की गुलामी में लगाना तो बौद्धिक- वेश्यावृत्ति ही हुई । दोष दोनों ही काव्यों में हैं, परन्तु इससे काव्यों की गरिमा किंचिदपि नहीं घटी है । इस विषय में कालिदास का हो कथन है "एको हि दोषो गुणसन्निपाते, निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवांक ।" अतः मनुष्य की रचना एकदम दूध- धोई (बिलकुल निर्दोष) तो हो ही नहीं सकती और फिर जिस काव्य में अधिकांशतः गुण ही गुण हैं, उसमें - एकाध छुट-पुट दोष उसके उत्कर्ष में किसी प्रकार का व्यवधान कर भी नहीं सकते हैं | छन्द-प्रयोग विधि में जितनी सफलता कालिदास को प्राप्त हुई है उतनी मेरुतुङ्ग को नहीं । कालिदास के छन्द में एक कमनीयता, प्रतिक्षण नूतनता परिलक्षित मिलती है जो मेरुतुङ्ग के छन्द में अदृष्ट हो है । इन्हीं अनेकशः विशेषताओं के कारण ही कालिदास का मेघदूत प्रसाद गुण द्वारा अभिषिक्त होते हुए भी अपने काव्यात्मक रस का आस्वादन कराने में तत्पर दृष्टिगत होता है, परन्तु मेरुतुङ्ग का जैन मेघदूत अपने काव्यात्मक रसास्वादन में उतना रस नहीं लेता प्रतीत होता है । जैनमेघदूत के काव्यकार यदि कहीं सक्रिय मिलते हैं तो मात्र नवीन, गूढ़ एवं क्लिष्ट शब्दों तथा व्याकरणात्मक अलंकरणों द्वारा अपने काव्य को सँवारने में, सजाने में । I इस प्रकार स्पष्ट होता है कि दोनों ही काव्य अपने-अपने ढङ्ग में निराले हैं । कालिदास के विषय में यह इतना अवश्य हो विशेष कहा जा सकता है कि उनकी इस विश्वजनीन प्रतिभाका प्रधान लक्षण यह है कि हजार वर्ष पूर्व उन्होंने जो लिखा, वह आज भी पर्वत सदृश अटल भाव से वैसे ही गर्व के साथ खड़ा है । कालिदास के बहुत समय पश्चात् मेरुतुंग ने अपने काव्य को कुछ अपनी ही शैली में रचा है । अतः स्वाभाविक ही था कि दोनों काव्यों में देशकालगत एवं विचारों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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