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________________ २२४ : जैनमेघदूतम् जिसमें राम हनुमान को दूत रूप में नियुक्त कर सीता के पास भेजते हैंदूतकाव्य का प्रेरणादायक सिद्ध हुआ है। दूतकाव्य-परम्परा के प्रणेता महाकवि कालिदास ने इसी प्रसङ्ग को लक्ष्य कर दूतकाव्य के प्रारूप को रचा और तबसे अद्यतन दूतकाव्य की एक विस्तृत परम्परा ही चल पड़ी। इसी क्रम में आचार्य मेरुतुङ्ग का जैनमेघदूतम् भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । हालाँकि यह काव्य कालिदास के मेघदूत के कई शताब्दी बाद रचा गया है, फिर भी अपनी विशिष्ट काव्यात्मकता एवं सौन्दर्याभिव्यक्ति को लेकर यह दूतकाव्य-परम्परा में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान स्थापित करने में पूर्ण सक्षम सिद्ध होता है । __आचार्य मेरुतुङ्ग के पूर्ण परिचय के आधार पर हम कह सकते हैं कि वे पन्द्रहवीं शताब्दी के जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अचलगच्छ के प्रमुख आचार्य एवं सर्वमान्य कवि थे। जिन्होंने लगभग छत्तीस ग्रन्थों का प्रणयन किया था । काव्य में नायिका राजीमती मेघ को दूत के रूप में नियुक्तकर उसके द्वारा अपने प्रियतम श्रीनेमि के पास अपना प्रणय-सन्देश सम्प्रेषित करती है। काव्य की रस-सम्बन्धी मान्यता के प्रति जहाँ तक कहा जा सकता है वह यह कि जैनमेघदूतम् में शृङ्गार रस के उभय पक्ष सहित शान्त रस ही संयम, सदाचार की स्थापना करते हुए परमार्थतत्त्व को निरूपित करता हुआ मिलता है। साथ ही जैनमेघदूतम् काव्यध्वनि से भी आकण्ठपूरित दृष्टिगोचर होता है। __ अलङ्कार-सम्बन्धी विवेचन के सन्दर्भ में हम विशेष यह कह सकते हैं कि आचार्य मेरुतुङ्ग ने लगभग पैंतालीस अलङ्कारों का प्रयोग अपने काव्य में किया है। परन्तु उनको इन अलङ्कारों के प्रस्तुतीकरण में सर्वाधिक सफलता श्लेष अलङ्कार के प्रयोग में ही मिली है। उनके श्लेष अलङ्कार के प्रयोग वास्तव में अधिक हृदयावर्जक सिद्ध हुए हैं। ___ माधुर्य ऐसे उत्कृष्टतम गुण में निबद्ध होकर भी जैनमेघदूतम् सामान्य रसिक को रसास्वादन करा पाने में समर्थ नहीं हो पाया है। वह अपनी क्लिष्ट-पदावली के कारण मात्र सुविज्ञ पाठकों को ही रसानुभूति करा पाने में समर्थ है। यह मैं जानता हूँ कि काव्य-दोष के प्रसङ्ग में श्रेणी-विशेष के सुविज्ञ पाठकों को विशेष प्रसन्नता नहीं होगी, क्योंकि हो सकता है हमने जहाँ पर जिसे दोष समझा है शायद वह स्थल मुझे भलीप्रकार गहराई तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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