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भूमिका : २२३ का सविस्तार वर्णन होता है । शृङ्गार, वीर, शान्त आदि रस होते हैं जिनमें एक प्रधान अंगी रस तथा अन्य सभी अंग रस होते हैं। प्रभात, सन्ध्या, मध्याह्न एवं षड् ऋतुओं का वर्णन होता है। महाकाव्य की इस कसौटी पर जैनमेघदूतम् पूर्णतया तो खरा नहीं उतरता है, परन्तु फिर भी अधिकांश लक्षण महाकाव्य के लक्षणों से संगति रखते मिलते हैं। __हम देखते हैं कि जैनमेघदूतम् काव्य का नायक धीरोदात्त कुलीन तो है परन्तु क्षत्रिय नहीं। जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकर के रूप में उसकी मान्यता प्रचलित है । ये तीर्थकर जैनधर्म में देवतुल्य ही पूज्य हैं। अतः काव्य-नायक को कुलीन क्षत्रिय के रूप में तो नहीं, परन्तु देवता के रूप में अवश्य रख सकते हैं । इस प्रकार महाकाव्य के इस लक्षण को प्रति यह काव्य अवश्य कर लेता है। काव्य में नायक श्रीनेमि के चरित्र का ही विस्तृत वर्णन है । रस भी वे सभी हैं जो महाकाव्य हेतु अपेक्षित होते हैं । शान्त रस अंगी रस के रूप में प्रयुक्त हुआ है, अन्य शृङ्गार, वीर आदि रस अंग रस के रूप में हैं।
काव्य में प्रातः, मध्याह्न एवं सन्ध्या के वर्णन के साथ ही वर्षा एवं ग्रीष्म आदि ऋतुओं का भी विस्तृत एवं सुन्दर वर्णन हुआ है। मात्र वैभिन्न्य है तो काव्य-सर्गों में । इस काव्य में मात्र चार सर्ग हैं, जबकि महाकाव्य के लिए आठ सर्ग आवश्यक कहे गये हैं। इस आधार पर जैनमेघदूतम् को महाकाव्य की श्रेणी में नहीं रख सकते हैं, इसी के साथ ही मुख्य रूप से दौत्य कर्म-सम्पादन एवं काव्य का नाम उसे पूर्णतया दूतकाव्य (खण्डकाव्य) की श्रेणी में ही रख देता है। ये दूतकाव्य खण्डकाव्य के ही रूप हैं। कालिदास के मेघदूत के समान इसका भी नामकरण 'मेघदूत' ही होने के कारण तथा कालिदासीय मेघदूत के साथ बहुत कुछ साम्यता होने के कारण इस काव्य को भी विद्वानों ने दूतकाव्य ही स्वीकार किया है, महाकाव्य नहीं।
अतः पूर्व का प्रस्तुत साहित्यिक अध्ययन जैनमेघदूतम् को एक दूतकाव्य के रूप में स्वीकृत करके ही अपनी बुद्धि, विश्वास एवं विवेक के अनुसार किया गया है। इस कार्य में सर्वप्रथम दूतकाव्य के उद्भव एवं विकास तथा ऐतिहासिक प्राचीनतम ग्रन्थों में उसका उत्स-खोजने का प्रयास किया गया है। जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि हो न हो दूतकाव्य का प्रारम्भिक स्रोत आदि कवि की रामायण में से ही प्राप्त हुआ है। सीता के प्रति भेजा गया राम का वह सन्देश-प्रसङ्ग
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