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________________ उपसंहार भारतीय साहित्यिक दृष्टि कवि को क्रान्तदर्शी स्वीकार करती आयी है अर्थात् वह उसे उस सूक्ष्मगामिनी प्रतिभा से समन्वित मानती आयी है, जो पार्थिव क्रिया-कलापों का उच्छेदन कर उसके आन्तरिक सत्यों का उद्घाटन करती है, विभिन्न रूपात्मक बाह्य जगत् की वास्तविकताओं से अतीत स्वप्न का साक्षात्कार करती है एवं दूसरों को भी उसके मानसी -दर्शन कराती है। आदिकवि ऐसे ही क्रान्तदर्शी कवि थे, जिन्होंने सुख-दुःखापूर्ण इस पार्थिव-जीवन के परिप्रेक्ष्य में इसी आनन्द का साक्षात्कार किया था निषादविद्धाण्डजदर्शनोत्थः श्लोकत्वमापद्यत यस्य शोकः। संसारी जीवन के सन्दर्भ में यह आनन्द, प्रेम एवं करुणा का स्वरूप ग्रहण करता है और इस करुणा से ही काव्य का प्रादुर्भाव हआ था। जैनमेघदूतम् की सूप्रसिद्ध कथा का यही आभ्यन्तरिक रहस्य है। आचार्य मेरुतुङ्ग सर्वथा एक भिन्न युग को ही प्रसूति हैं, फिर भी उनका जैनमेघदूतम् अपनी वर्ण्य-वस्तु के प्रसङ्ग में जैनागम ग्रन्थ उत्तराध्ययनसूत्र के रथनेमीय नामक बाईसवें अध्ययन से काफी प्रभावित मिलता है। वैसे यदि देखा जाय तो प्रस्तुत काव्य अपने स्वरूप-विधान के क्षेत्र में सर्वथा भिन्न एवं नवोन है। वैसे जैनमेघदूतम् अपने संरचना-प्रारूप द्वारा एक खण्डकाव्य के रूप में न मिलकर महाकाव्य के रूप में परिलक्षित होता है । साहित्यदर्पणकार ने खण्डकाव्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है खण्डकाव्यं भवेत्काव्यस्यैकदेशाऽनुसारि च।। महाकाव्य के एक भाग का अनुसरण करने वाले काव्य को खण्डकाव्य कहते हैं अर्थात् इसमें समूचा चरित्र-वर्णन न होकर मात्र उसके एक भाग का ही वर्णन होता है। जबकि जैनमेघदूतम् इस कसौटी पर चढ़ ही नहीं पाता है । कारण यह है कि उसके बहुत कुछ लक्षण महाकाव्य से संगति स्थापित करते मिलते हैं, क्योंकि साहित्यदर्पणकार ने महाकाव्य का लक्षण दिया है कि महाकाव्य में आठ से अधिक सर्ग होते हैं, काव्य-नायक कोई देवता या धीरोदात्त गुणसम्पन्न कुलीन क्षत्रिय होता है। उसी के चरित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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