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________________ २१८: जैनमेघदूतम् ये दो अक्षर गुरु हों तथा हे कान्ता ! अन्त्य के दो अक्षर भी गुरु हों और चार, छः तथा सात-सात वर्णों पर विराम हों, हे तन्वङ्गि! श्रेष्ठ कवीश्वर उसे मन्दाक्रान्ता कहते हैं चत्वारः प्राक्सुतनु गुरवो द्वादशैकादशौ चेन्मुग्धे वर्गों तदनु कुमुदामोदिनि द्वादशान्त्यौ । तद्वच्चान्त्यौ युगरसहयैर्यत्र कान्ते विरामो मन्दाक्रान्तां प्रवरकवयस्तन्वि तां संगिरन्ते ॥' इस प्रकार छन्दःशास्त्र विषयक उपर्युक्त विविध ग्रन्थों के आधार पर मन्दाक्रान्ता छन्द का जो रूप प्रतिबिम्बित होता है, वह यही कि मन्दाक्रान्ता छन्द सत्रह अक्षरों से युक्त होता है अर्थात् मन्दाक्रान्ता छन्द के चारों चरणों में १७-१७ अक्षर होते हैं। उनमें से प्रथम, चार, दस, ग्यारह, तेरह, चौदह, सोलह एवं सत्रहवाँ अक्षर गुरु तथा शेष अक्षर लघु होते हैं । गणों के आधार पर इसे इस प्रकार समझ सकते हैं कि इसमें एक मगण, एक भगण, एक नगण, दो तगण और दो गुरु होते हैं मगण भमण नमण तमाम लमण मुरु [sss s।।।।। 551 55। ss] मन्दाक्रान्ता छन्द के उपस्थिति-स्थान का विवेचन करते हुए क्षेमेन्द्र ने कहा है कि वर्षा और प्रवास के प्रकरण में मन्दाक्रान्ता विराजती है प्राकृटप्रवासव्यसने मन्दाक्रान्ता विराजते।' इसी प्रकार केदारभट्ट ने मन्दाक्रान्ता को मृदु-मृदु चरणों से क्रीड़ा करती हुई, मुग्ध एवं स्निग्ध मन्थर गति वाली कविता-कामिनी नानाश्लेषप्रकरणमणा चारवर्णोज्ज्वलाङ्गी नानामावाकलितरसिकणिकान्ताऽन्तरङ्गा । मुग्धस्निग्धैर्मुदुमृदुपदैः क्रीडमाना पुरस्ता न्मन्दाक्रान्ता भवति कविताकामिनी कौतुकाय॥ कालिदासीय मेघदूत में निबद्ध मन्दाक्रान्ता का महत्त्व व उसकी ख्याति को ध्यानावस्थित कर अन्य अनेक कवियों ने भी इसी मन्दाक्रान्ता १. श्रुतबोध, १८ । २. सुवृत्ततिलक, ३/२१ । ३. वृत्तरत्नाकर, ३/९७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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