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२१६ : जैनमेघदूतम्
श्रीमद्भागवत में छन्दों की यह संख्या पच्चीस तक पहुँच गयी है । इसके अनन्तर के काव्यों में पचासों प्रकार के छन्द प्रयुक्त किये गये हैं ।
छन्दों की संख्या के सम्बन्ध में भी विविध विवेचन हुए हैं । लौकिक छन्दों में 'वृत्तरत्नाकर' ग्रन्थ अधिक महत्त्वपूर्ण है, इसमें एक सौ चौरासी लौकिक छन्दों का वर्णन है । कालिदास के छन्दोविषयक ग्रन्थ 'श्रुतबोध' के आधार पर इन लौकिक छन्दों की संख्या चालीस मिलती है । इन छन्दों की वास्तविक संख्या के विषय में अधिक विवेचन की आवश्यकता नहीं । प्रायः काव्यों और महाकाव्यों में विशेष रूप से 'श्रुतबोध' में निर्देशित उपर्युक्त चालीस लौकिक छन्द ही प्रयुक्त मिलते हैं । इस आधार पर निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि सर्वमान्य रूप से इन छन्दों की संख्या कम से कम ४० तो है ही ।
जैनमेघदूतम् में छन्द :
इन्हीं छन्दों में से एक छन्द है - मन्दाक्रान्ता । इसी मन्दाक्रान्ता छन्द का जैनमेघदूतम् में प्रयोग किया गया है । अतः यहाँ छन्दोविषयक विवेचन की गहराई में न जाकर मन्दाक्रान्ता छन्द का लक्षण, स्वरूप आदि स्पष्ट कर लेना आवश्यक है ।
मन्दाक्रान्ता का स्वरूप :
छन्दःशास्त्र के आद्यग्रन्थ पिङ्गल छन्दः सूत्रम् में मन्दाक्रान्ता छन्दका लक्षण इस प्रकार दिया गया है
मन्दाक्रान्ता म्भौ न्तौ त्गौ ग् समुद्रर्त्तुस्वराः ।
आचार्य भरत ने मन्दाक्रान्ता को " श्रीधरा" नाम से सम्बोधित करते हुए उसका लक्षण इस प्रकार दिया है
चत्वर्यादौ च दशमं गुरूण्यथ त्रयोदशम् । चतुर्दशं तथा पञ्च एकादशमथापि च ॥ यदा सप्तदशे पादे शेषाणि च लघून्यपि । भवन्ति यस्मिन्सा ज्ञेया श्रीधरा नामतो यथा ॥
केदारभट्ट ने मन्दाक्रान्ता छन्द का लक्षण इस प्रकार अभिव्यक्त
किया है
१. पिङ्गल छन्दः सूत्रम्, ७/१९ । २. नाट्यशास्त्र, १५ / ७६, ७७ । .
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