________________
भूमिका : २१३ निष्ठ पद सन्निहित हैं। हाँ ! इतना अवश्य है कि इससे इस काव्य के कर्ता के व्यक्तित्व का सूक्ष्म निदर्शन अवश्य होता है कि व्याकरणनिष्ठ रचना में कवि पूर्णतया पारङ्गत था । जबकि कालिदास ने सुललित एवं प्रसादमयी भाषा में अपने काव्य को जन-सामान्य के हृदय तक पहुँचाया है । इसी कारण कालिदासीय मेघदूत सुविज्ञ एवं सामान्य सभी वर्गों में बराबर समरूप से ग्रहण किया गया है। इसके विपरीत आचार्य मेरुतुङ्गकृत जैनमेघदूतम् मात्र सुविज्ञ पाठकों तक ही सीमित रह गया है ।
जैनमेघदूतम् में माधुर्य गुण के अतिरिक्त किञ्चित् अंश में ओज गुण भी प्रवाहित मिलता है । परन्तु काव्य में ओज गुण का उतना महत्त्व नहीं है, जितना माधुर्य गुण का । फिर भी काव्य में ओज गुण का समावेश, यह सूचित करता है कि कवि ने अपने काव्य को एक सीमाक्षेत्र में न उसे एक विस्तृत आकार देने का प्रयत्न किया है ।
के
कालिदासीय मेघदूत की रचना प्रसाद गुण के आधार पर हुई है, क्योंकि यह काव्य करुणरस एवं शृङ्गार के वियोग पक्ष से ही ओत-प्रोत है | अतः ऐसे करुणार्द्र सन्देश तथा विरह सहारे प्रेमातिशयद्योतक बातों को स्पष्ट करने के लिए प्रसाद गुण की ही आवश्यकता क्यों होती है, यह कोई कहने की बात नहीं । प्रेम की बात अगर कहते ही समझ न आ जाये, कारुणिक सन्देश यदि कानों की राह से हृदय में तत्काल ही न पहुँच जाये, तो एक प्रकार से प्रेम की यह बात एवं वह कारुणिक सन्देश निष्फल ही है । क्योंकि जिस समय ऐसे प्रेम की बात अथवा कारुणिक सन्देश को किसी के सामने कहा जाता है, उस समय वह व्यक्ति उस प्रेमालाप को सुनने हेतु कोई कोश आदि लेकर नहीं बैठा होता है और न तो ऐसा करुण-आलाप एवं कारुणिक सन्देश कहने वाला व्यक्ति ही उस समय अपनी उन कारुणिक विरहपूर्ण उक्तियों को व्यंग्यता, सुन्दरता आदि से समलङ्कृत करने की कोशिश में रहता है ।
समाज में प्रायः ऐसा देखा जाता है कि सरल एवं सहज ग्राह्य विषय की ओर ही प्रायः सभी वर्ग के पाठक आकृष्ट होते हैं, जबकि क्लिष्ट एवम् व्याकरणनिष्ठ भाषा वाले काव्य मात्र सुविज्ञ पाठकों को ही अपनी ओर आकर्षित कर पाते हैं। पूरी की पूरी यही बात कालिदास के मेघदूत और आचार्य मेरुतुङ्ग के जैनमेघदूतम् के बारे में है । अपनी प्रसादमयी सुललित एवं सरल भाषा के कारण ही कालिदास का मेघदूत जन-सामान्य को भी उसी रूप में आकृष्ट करता है, जिस रूप में सुविज्ञ पाठकों को । परन्तु
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org