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________________ भूमिका : २११ कुछ-कुछ सशङ्कित होकर सभा के मध्य भाग में बैठे श्रीकृष्ण भी अत्यन्त क्षुभित हो उठे और बहुत क्या कहूँ-नगर के दुर्गं में उस समय "सब वस्तुएँ क्षणिक ही हैं" यह वाक्य लगा ।" इस प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने काव्य में ओजगुण का भी सफल प्रयोग कर दिखाया है । आचार्य मेरुतुङ्ग के ये प्रयोग कवि की गुणप्रियता को लक्षित करते हैं । माधुर्यगुण की अपेक्षा भोज गुण के अत्यल्प प्रयोग कवि ने प्रस्तुत किये हैं, परन्तु उनके ये अत्यल्प प्रयोग भी बहुत सफल सिद्ध हुए हैं । आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने काव्य में प्रसाद गुण की अभिव्यक्ति प्रायः नहीं की है । जो स्वाभाविक भी था, क्योंकि माधुर्य गुण से संश्लिष्ट भाषा एवं पदों में वह प्रसादात्मकता का भाव आ भी कैसे सकता है ? प्रसाद गुग तो वहीं पर सफलीभूत हो सकता है, जहाँ पर काव्य का भाव सहृदय सामान्यरसिक की आत्मा में उसी प्रकार झटिति व्याप्त हो जाता है, जिस प्रकार सूखे हुए ईंधन में अग्नि और स्वच्छ वस्त्रादि में जल झटिति व्याप्त हो जाता है।। जबकि आचार्य मेरुतुङ्ग का जैनमेघदूतम् काव्य पूर्णतया इसके विपरीत है, वहाँ पर न तो प्रसाद गुण के अनुकूल भाषा है और न भाव ही । काव्य की भाषा समास एवं अलङ्कार - बहुला होने के साथ ही साथ क्लिष्ट एवं अप्रचलित शब्दों से मण्डित भी है और काव्य में अभिव्यक्त होने वाले भाव पूर्णतया व्यञ्जना पर आधारित हैं । सीधे एवं सरल ढंग से एक भी श्लोक का भाव नहीं स्पष्ट हो पाता है, फिर श्लेष के इतने बीहड़ कपाट कहीं-कहीं लगे हैं कि उनको तोड़कर अन्दर तक पहुँच पाना भी अति दुश्शक हो है एक सामान्यजन के लिए । अतः ऐसी स्थिति में काव्य में प्रसाद गुण की उपस्थिति भला कैसे सम्भव हो सकती थी । पूरे काव्य में माधुर्य गुण ही छाया हुआ है । फिर प्रसाद गुण की क्या बिसात माधुर्य के आगे । इसलिए जैनमेघदूतम् काव्य माधुर्य गुण युक्त ही कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें प्रसादगुण की स्थिति नहीं है और ओजगुण भी अल्प मात्रा में है । १. जैनमेघदूतम् १ | ३८ । शङ्खनाद होने पर सत्य प्रतीत होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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