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२१० : जैनम्मेवदूतम्
श्रीनेमि द्वारा श्रीकृष्ण को भुजा को हिला दिये जाने पर श्रीकृष्ण सलज्जित होले हुए हँसकर श्री नेमि से बोले-हे बन्धु ! जैसे संसार में काम और अग्नि वसन्त और वायु की सहायता से अजेय हैं, वैसे ही हम भी आपके बल से आज अजेय हुए हैं
भ्रातः ! स्याम्ना जगति भवतोऽजय्यमेवासमद्य
प्रद्युम्नाग्नी इव मधुनभःश्वाससाहायकेन ॥ इसी प्रकार ओजगुण का एक स्थान और भी उपस्थित होता है, जब श्रीनेमि शस्त्रागार में शङ्खनाद करते हैं। कवि ने शङ्खनाद से उत्पन्न कई क्रियाओं एवं घटनाओं का ओजगुण से युक्त अत्यन्त मनोहारी वर्णन किया है
तस्मिन्नीशे धमति जलजं छिन्नमूलद्रुवत्ते शस्त्राध्यक्षाः सपदि विगलच्चेतनाः पेतुरूाम् । आश्वं चाशु व्यजयत मनो मन्दुराभ्यः प्रणश्य
न्मूढात्मेवामुक्त चतुरोपाश्रयं हास्तिकं च ॥ अर्थात् उन श्रीनेमि स्वामी के शङ्ख बजाते ही शस्त्रागार के प्रसिद्ध रक्षक तत्काल ही चेतनाशून्य होकर पृथ्वी पर कटे हुए वृक्ष की भाँति गिर पड़े
और घुड़सार से तेज भागते हुए घोड़ों ने मन को भी (अपनी तीव्र गति के द्वारा) जीत लिया तथा हाथियों ने हस्तिशाला को (सिंह-गर्जन की भ्रान्ति से) उसी प्रकार छोड़ दिया, जैसे मूर्ख चतुरों की सभा को छोड़ देते हैं। ओजगुण से युक्त ये वर्णन अत्यन्त सजीव प्रतीत होते हैं । ओजगुण से आसिक्त इसी प्रसङ्ग का कवि ने आगे और भो वर्णन किया है कि-"पुरनारियों ने हृदय में हार की तरह मुख में हा-हा शब्दों को धारण किया, सैनिकों के हाथों से अस्त्र फाल्गुन में वृक्षों के पत्तों की तरह गिरने लगे। महलों के शिखर ऐसे गिरने लगे, जैसे पर्वतों से बड़ेबड़े पत्थर गिरते हैं। अति भयाकूल वह रैवतक प्रतिध्वनि के व्याज से पुकारने लगा। शङ्ख के प्रौढ़नाद से राजसभा में जो ईश्वर करेगा वही होगा, ऐसा मानने वाले–वीर लज्जा के कारण ही स्थिर रह सके, १. जैनमेघदूतम्, १/४८।। २. वही, १/४९ (उत्तरार्ध)। ३. वही, १/३६ । ४. वही, १/३७ ।
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