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भूमिका : २०९ तारावत् एवं पौष्पमुकुट चन्द्रवत् था। पदों में कितनी मधुरता विद्यमान है। विरह-वर्णनों की ही भाँति इन शाङ्गारिक वर्णनों के भाव भी व्यञ्जनाप्रधान हैं।
आचार्य मेरुतुङ्ग ने जहाँ अपने काव्य को माधुर्य गुण द्वारा परिपुष्ट किया है, वहीं ओजगुण का भी यत-किञ्चित् प्रयोग कर उसमें भी अपनी प्रवीणता का पूर्ण परिचय प्रस्तुत किया है।
ओज गुण सामाजिक हृदय को भड़काने वाला होता है तथा यह वीर रस में अवस्थित रहता है- दीप्त्यात्मविस्तृतेर्हेतुरोजो वीररसस्थिति ।' अर्थात् जिसे सामाजिक हृदय का प्रज्ज्वलन या धधक उठना कहा जा सकता है। इसमें ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चित्त की सारी शीतलता अकस्मात् ही नष्ट हो गयी हो और बदले में चित्त एकदम उद्दीप्त हो उठा हो।
इस ओजगुण के प्रयोग में भी आचार्य मेरुतुङ्ग की निपुणता प्रदर्शित होती है। काव्यनायक श्रीनेमि के भुजबल के परीक्षण का बड़ा ही ओजपूर्ण एवं सुन्दर चित्रण कवि ने प्रस्तुत किया है। श्रीनेमि और श्रीकृष्ण के भुजबल को देखने के लिए नर तो क्या अमर भी एकत्रित हो गये। इसी बात को आचार्य मेरुतुङ्ग ने इस प्रकार व्यक्त किया है
दूरापास्तस्फुटरसकलाकेलिकृत्यान्तराया व्याप्तानन्ताः परिहतगवोऽनिनिमेषाक्षिलक्ष्याः। मामाः समगमत तौ तत्र चित्रीयमाणा
रोदःखण्डे लघु निशमकाः स्थेयवन्निविशेषाः ॥२ अर्थात् विघ्नभूत रस कला-केलि आदि को त्यागने वाले, आकाश को व्याप्त करने वाले, स्वर्ग का त्याग करने वाले, निमेष-रहित नेत्रों से देखने वाले तथा आश्चर्य प्रकट करने वाले (अमर अर्थात् देवता पक्ष); भोजन, कला, क्रीडा और व्यवसायों को छोड़ने वाले, पृथ्वी को व्याप्त करने वाले. वचनों को बोलने वाले, सनिमेष नेत्रों से देखने वाले तथा आश्चर्य प्रकट करने वाले (नर अर्थात् मानव पक्ष) और शीघ्र ही श्रीनेमि तथा श्रीकृष्ण को देखेंगे ऐसा सोचने वाले, नर और अमर सभ्य पुरुषों की तरह शान्त होकर आकाश तथा पृथ्वी के बीच में एकत्रित हो गये। १. काव्यप्रकाश, ८/६९ । २. जैनमेघदूतम्, १/४२ ।
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