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२०८ : जैनमेघदूतम् रहे हैं। राजीमती ने भगवान् श्रीनेमि को मेरुकल्पद्रुमचिन्तामणिसूर्यतुल्य कहा है । इसी प्रकार व्यञ्जनायुक्त भावों द्वारा आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने काव्य के प्रायः प्रत्येक श्लोक को माधुर्य गुण में ही विभूषित किया है ।
आचार्य मेरुतुङ्ग ने माधुर्य गुण से ओत-प्रोत अपने काव्य में शृाङ्गारिक वर्णनों का भी भली-प्रकार चित्रण किया है। उनके इन शाङ्गारिक वर्णनों में भी वही सरसता तथा मधुरता मिलती है, जो उनके विरह-वर्णनों में मिलती है। परन्तु माधुर्यगुण से विभूषित होने के कारण काव्य में कुछ क्लिष्ट, अप्रचलित तथा गूढ़ शब्दों के प्रयोग स्वाभाविक ही हैं । इसी. का निदर्शन निम्न श्लोक में है
काचिच्चञ्चत्परिमलमिलल्लोलरोलम्बमालां मालां बालारुणकिशलयैः सर्वसूनैश्च क्लुप्ताम् । नेमेः कण्ठे न्यधित स तया चादिभिच्चापयष्ट्या
रेजे स्निग्धच्छविशितितनुः प्रावृषेण्यो यथा त्वम् ॥ अर्थात् किसी कृष्णपत्नी ने-भ्रमर-समूह जिसके परिमल पर मँडरा रहे हैं तथा जो बाल और अरुण किसलयों एवं सभी प्रकार के पुष्पों से गथी गई है, ऐसी-माला को श्रीनेमि के कण्ठ में पहना दी। उस माला से वे उसी प्रकार शोभित हुए, जैसे वर्षाकाल में सुन्दर कृष्णकान्ति वाले तुम (मेघ) इन्द्रधनुष से शोभित होते हो। यहाँ पर पदों में कितनी ही क्लिष्टता परिलक्षित हो रही है। इसी प्रकार ही एक अन्य शृाङ्गारिक वर्णन प्रस्तुत है--
श्रीखण्डस्य द्रवनवलवर्नर्मकर्माणि विन्दुबिन्दून्न्यासं वपुषि विमले पत्रवल्लोलिलेख । पौष्पापीडं व्यधित च परा वासरे तारतारा
सारं गर्भस्थितशशधरं व्योम संदर्शयन्ती ॥ अर्थात् एक अन्य हरिवल्लभा ने, जो नर्म-कर्म की पण्डिता थी, चन्दनरस के नव-नव लवों से श्रीनेमि के विमल शरीर में बिन्दु-विन्यास पूर्वक पत्रवल्लो की रचना की। फिर उनके सिर पर पौष्प-मकूट रख कर दिन में ही चन्द्र एवं ताराओं से युक्त व्योम को सभी को दिखलाने लगी। यहाँ पर श्रीनेमि का वपु श्याम-वर्ण होने से व्योमतुल्य था, पत्रावली.
१. जनमेघदूतम्, २/१९ । २. वही, २/२० ।
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