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भूमिका : २०७
नीलीनीले शितिलपनयन् वर्षयत्यक्षु वर्षन् गर्जत्यस्मिन् पटु कटु रटन् विद्ययत्यौष्ण्यमियत् । वर्षास्ववं प्रभवति शुचे विप्रलब्धोऽम्बुवाहे वामावर्ग: प्रकृतिकुहनः स्पर्धतेऽनेन युक्तम् ' ॥ इस श्लोक में पदों की कितनी ही सुन्दर अभिव्यञ्जना की गई है । आचार्य मेरुतुङ्ग के इसी प्रयोग से ही उनकी माधुर्य गुण की प्रयोग - कला की कल्पना को जा सकती है । इसी प्रकार की सुदृढ़ पद-रचना काव्यमाधुर्य के अभिव्यञ्ज में पूर्णतः सहायक भी सिद्ध होती है । इसी कारण आचार्य मेरुतुङ्ग की भाषा पूर्णतया माधुर्य गुण से परिपूर्ण है ।
माधुर्य गुण से विभूषित आचार्य मेरुतुङ्ग की वाणी अपना चमत्कार दिखा रही है। उसके एक-एक शब्द अपनी माधुर्यता अभिव्यक्त कर रहे हैं तथा प्रत्येक भाव अपने अर्थ की अभिव्यञ्जना कर रहे हैं । उन्होंने शब्दों में ऐसा तालमेल बिठाया है कि पढ़ते ही मन विभोर हो उठता है । आचार्य मेरुतुङ्ग प्रत्येक पद में जहाँ माधुर्यता लाने के ध्यान में रहे हैं, वहीं उनमें व्यञ्जनासिक्त भावों को भी सन्निहित करने में नहीं चूके हैं । इसी का एक उदाहरण प्रस्तुत है, जिसमें राजीमती श्रीनेमि के विरक्त हो जाने पर भी उन्हीं के ध्यान में योगिनी के रूप में जीवन व्यतीत कर डालने को कहती है
क्व ग्रावाणः क्व कनकनगः क्वाक्षकाः क्वामरद्रुः काचांशाः क्व क्व दिविजमणिः क्वोडवः क्व द्युरत्नम् । क्वान्ये भूपाः क्व भुवनगुरुस्तस्य तद्योगिनीव ध्यानान्नेष्ये समयमिति ताः प्रत्यथ प्रत्यजानि ॥
अर्थात् कहाँ पत्थर और कहाँ स्वर्णगिरि सुमेरु पर्वत, कहाँ बहेड़ा और कहाँ कल्पवृक्ष, कहाँ काँच के टुकड़े और कहाँ चिन्तामणि, कहाँ तारे और कहाँ भगवान् भास्कर, कहाँ अन्य नृप और कहाँ भुवनगुरु ? अतः मैंने सखियों के ही समक्ष यह प्रतिज्ञा कर ली कि मैं योगिनी की भाँति उन भगवान् के ध्यान में सारा जीवन काट डालूंगी । इस श्लोक में आचार्य मेरुतुङ्ग की रचना - कला का कितना सुन्दर निदर्शन हो रहा है । शब्दों की विशिष्टता के कारण भाव भी व्यञ्जना द्वारा ही प्रतिभासित हो
१. जैनमेघदूतम्, १ / ६ । २. वही, ३/५४ ।
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