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२०६ : जैनमेघदूतम्
दीक्षा तस्मिन्निव नवगुणां सैषणां चाफ्यष्टिं प्रद्युम्नाद्यामभि रिपुचमूमात्तवत्येकवीरे। तभक्तेति च्छलितजगता क्लिश्यमाना निकामं
कामेनाशु प्रियविरहिता भोजकन्या मुमूर्छ। अर्थात् उन अद्वितीय वीर श्रीनेमि के द्वारा अपनी उस शत्रुसेना (काम जिसमें प्रमुख है)-जिसके आगे बड़े-बड़े बलिष्ठ वीर हैं-की ओर नवीन प्रत्यञ्चा तथा बाण से युक्त धनुष के ग्रहण करने पर, समस्त संसार को छलने वाले कामरूपी (श्रीनेमि के इस) प्रमुख शत्रु के द्वारा-यह जान कर कि यह हमारे शत्रु श्रीनेमि की भक्त है-अत्यन्त पीडित की जाती हई प्रियविरहिता भोजकन्या मूच्छित हो गयी। इस श्लोक का व्यंग्यार्थपूर्ण भाव यह निकल रहा है कि मोह आदि महाशत्रुओं को परास्त करने में अद्वितीय श्रीनेमि ने, काम जिसमें प्रमुख है ऐसी विषय-समूह रूपी शत्रसेना के प्रति जब शील-क्षमा आदि नवीन गुणों वाली तथा एषणासमिति से युक्त दीक्षा को ग्रहण किया, तब उनका उपकार न कर सकने वाले तथा छल-युद्ध में कुशल कामदेव द्वारा-ऐसा जानकर कि यह राजीमती नेमिभक्त भी है तथा असहाय भी है इसलिए-अत्यन्त पीडित की जाती हुई भोजकन्या राजीमती मूच्छित हो गई।
इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपनी विशिष्ट पदरचना द्वारा अपने भावों को नवीन उपमाओं में सजाया है। उनकी यह रचना-विशिष्टता, अपने व्यञ्जनायुक्त भावों को सहृदय तक पहुँचाने में पूर्णतया सक्षम है। ऐसा ही एक स्थल प्रस्तुत है, जहाँ पर 'कवि ने वर्षाकाल में विरहिणी स्त्रियों को होने वाली कामव्यथा का सुन्दर एवं विशिष्ट शब्दों से युक्त पद-रचना में निदर्शन कराया है । वह कहता है कि-वर्षाकाल में स्वभाव से ईर्ष्यालु विरहिणी स्त्रियाँ अपने शोक को उत्पन्न करने वाले मेघ से जो ईर्ष्या करती हैं, वह ठीक ही है । क्योंकि जब वह मेघ नीलतुल्य श्यामवर्ण होता है, तो वे स्त्रियाँ भी मुख को श्याम अर्थात् मलिन बना लेती हैं । जब वह मेघ बरसता है, तो वे स्त्रियाँ भी अश्रु-जल बरसाती हैं; जब वह मेघ गरजता है, तो वे स्त्रियाँ भी चातुर्यपूर्ण कटु-विलाप करती हैं तथा जब वह मेघ बिजली चमकाता है, तो वे स्त्रियाँ भी उष्ण-निःश्वास छोड़ती हैं
१. जैनमेघदूतम्, १/२।
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