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________________ भूमिका : २०५ इस विषय में आचार्य मम्मट की दृष्टि कुछ भिन्न ही है, उन्होंने सम्भोग श्रृङ्गार को मधुर, करुण को मधुरतर, विप्रलम्भ शृङ्गार को मधुरतम और शान्त रस को माधुर्य की पराकष्ठा माना है ... करुणे विप्रलम्भे तच्छान्ते चातिशयान्वितम्' । जैनमेघदूतम् का प्रथम श्लोक ही माधुर्य गुण की अभिव्यक्ति करता है । कवि ने सहृदय पाठक को विचार कर श्लोक का भाव निकालने पर मजबूर कर दिया है । यथा कश्चित्कान्तामविषयसुखानीच्छुरत्यन्तधीमानेनोवृत्ति त्रिभुवनगुरु: स्वैरमुज्झाञ्चकार । दानं दत्त्वा सुरतरुरिवात्युच्च धामारुरुक्षुः पुण्यं पृथ्वीधर वरमथो रेवतं स्वीचकार ॥ अर्थात् तीनों लोकों के उपदेशक तथा अत्यन्त बुद्धिमान् किसी ने चिदानन्द सुखों को पाने की इच्छा से सभी पाप - व्यापारों की मूलकारण कान्ता को त्याग दिया । तदनन्तर सुरतरु के सदृश दान करके अत्युच्च पद पर आरोहण का इच्छुक दनकर पर्वतश्रेष्ठ, पवित्र रैवतक को स्वीकार किया । अब यहाँ इस श्लोक का अर्थ एवं इसके पद सभी माधुर्य गुण के अधान हैं । पदरचना आदि में तो स्पष्ट रूप से श्लिष्टता परिलक्षित ही हो रही है । परन्तु सबसे प्रमुख विशेषता है, इसमें प्रयुक्त व्यंग्यार्थ की । श्लोक में कहीं किसी भी ओर नेमीश्वर ( काव्य के नायक) का नाम नहीं लिया गया है, बल्कि व्यंग्यार्थ प्रस्तुतकारक "त्रिभुवनगुरु" शब्द से ही व्यञ्जना व्यापार द्वारा " नेमीश्वर" अर्थ अभिव्यञ्जित हो रहा है, जो आचार्य मेरुतुङ्ग के माधुर्य गुण -विषयक हस्तलाघव का स्पष्ट दिग्दर्शन 'कराता है । माधुर्य जैसे विशिष्ट गुण से विभूषित जैनमेघदूतम् की काव्य-वाणी में स्थित व्यञ्जना, सहृदय रसिक के मस्तिष्क पर किञ्चित् बल डलवाती है और तब फिर अपने मनोरम एवं सशक्त रूप में सहृदय रसिक के सम्मुख प्रकट हो जाती है। आचार्य मेरुतुङ्ग के जैनमेघदूतम् काव्य में प्रस्थित माधुर्य गुण की यही मुख्य विशेषता है । उन्होंने काव्य के द्वितीय श्लोक में ही व्यञ्जना का एक उत्कृष्ट प्रयोग कर दिखाया है । यथा १. काव्यप्रकाश, ८/६९। २. जैनमेघदूतम् १/१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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