________________
२०४ : जैनमेघदूतम्
लिप्त कर दिया है । इसके साथ ही काव्य में प्रयुक्त किञ्चित् वीर रस के प्रयोगों के कारण ओज गुण की भी स्थिति काव्य में मिलती है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि क्लिष्ट वाक्य-रचना एवं अलङ्कार-बाहुल्य से दुरूह बने इस काव्य को सहजतया हृदयावस्थित कर पाना सामान्यतः अति दुश्शक ही है । इस विषय में आचार्य मेरुतुङ्ग का-स्वाभाविक सामान्यता को त्यागने और व्यञ्जनासिक्त भाषा का प्रयोग करने का प्रयत्न यही सिद्ध करता है कि ऐसा उन्होंने शायद अपने काव्य को माधर्यगण से विभूषित करने के विचार से ही किया है । अपनो इस प्रतिभा-प्रदर्शनी में उन्होंने ओज गण का भी भली प्रकार प्रदर्शन कर अपनी रचना-प्रतिभा में चार चाँद लगा दिये हैं।
इस प्रकार माधुर्य एवं ओज गुण से विभूषित इस काव्य में प्रसाद गुण का महत्त्व नहीं स्थापित हो पाया है। यत्रतत्र मात्र कुछ ही स्थल प्रसाद गुण-स पन्न दृष्टिगोचर होते हैं ।
माधुर्य गुण चित्त को आह्लादित करने वाला होता है और शृङ्गार रस की स्थिति में चित्त को पानी-पानी कर देने का कारण होता है
आह्लादकत्वं माधुर्घ्य शृङ्गारे द्रुतिकारणम् । यहाँ शृङ्गार से तात्पर्य सम्भोग-शृङ्गार से है। सम्भोग-शृङ्गार के आस्वाद में माधुर्य का आह्लाद है, क्योंकि शृङ्गार की अनुभूति सामाजिक हृदय को एक अलौकिक द्रुति अर्थात् कोमलता से भर देती है। ध्वन्यालोकलोचनकार ने स्पष्ट कहा है कि शृङ्गार के आस्वाद में जो सर्वजन साधारण की अधिकाधिक तन्मयता होती है, वही शृङ्गार का माधुर्य है। माधुर्य के प्रकर्ष के सम्बन्ध में ध्वनिकार आनन्दवर्धन का कथन है कि सम्भोग-शृङ्गार यदि मधुर है तो विप्रलम्भ-शृङ्गार मधुरतर है और करुण . मधुरतम है
शृङ्गारे विप्रलम्भाख्ये करुणे च प्रकर्षवत । माधुर्यमाद्रतां याति यतस्तत्राधिकं मनः ॥
१. काव्यप्रकाश, ८/६८ । २. ध्वन्यालोक, लोचन टीका २/७ । ३. वही, २/८।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org