________________
भूमिका : २०३और क्लिष्ट शब्दों के स्थान पर समाज में प्रचलित एवं सहजतया हृदयंगम किये जा सकने वाले शब्दों का हो प्रयोग किया जाये, क्योंकि ऐसा करने पर ही वह अपने हृदय के भावों को सहजतया दूसरों तक भली-भाँति शीघ्रातिशीघ्र पहुँचा सकेगा।
कहा भी गया है कि उस कविता से लाभ ही क्या ? जिसे "खुद समझे या खुदा समझे" । जैनमेघदूतम् में गुण :
आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में जिस प्रकार अपने भावों को उद्घाटित करने का प्रयास किया है, उसे देखकर यही आभासित होता है कि उनके काव्य में इन काव्य-गणों की स्थिति किञ्चित् विचित्र ही है। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनके काव्य में तीनों ही गुण (माधुर्य, ओज एवं प्रसाद) समभाव से निर्शित मिलते हैं। उन्होंने अपनी शाब्दिक-समर्थता को इतनी क्लिष्टता पूर्ण शैलो में उपस्थित किया है कि उन्हें समझना व स्वहृद्गत करना सामान्यजन के लिए तो अशक्य ही है। उन्होंने समाज में अप्रचलित शब्दों को भी अधिक प्रयुक्त किया है, जिससे बिरले कृतविद्य ही उन शब्दों का अर्थ स्पष्ट कर सकते हैं। प्रत्येक श्लोक को सात-आठ अलङ्कारों, समासयुक्ता भाषा एव क्लिष्ट शब्दों के प्रयोग से परिपूरित किया है। यही कारण है कि उनके काव्य की भाषा सहजतया समझ पाना अति दुश्शक है, साथ ही उसमें प्रसाद गुण की अवस्थिति भी नहीं मिलती है।
जैनमेघदूतम् में मात्र करुण एवं विप्रलम्भ शृङ्गार को ही आधार मानकर काव्य-रचना नहीं हुई है, अपितु आचार्य मेरुतुङ्ग ने करुण एवं विप्रलम्भ शृङ्गार के साथ हो समभाव से शृङ्गार के संयोग पक्ष का भी विस्तृत प्रकटन किया है। वीर आदि रसों का भी यथाशक्य प्रयोग कर दिखाया है। कवि के इस प्रयास से यह पूर्णतया स्पष्ट होता है कि कवि ने अपने जैनमेघदूतम् को मात्र करुण-रस-प्रधान काव्य ही बनाने का प्रयास नहीं किया है, अपितु समस्त रसों का सामञ्जस्य स्थापित कर अपनी रचना को महाकाव्य की कोटि में रखने का प्रयास किया है। ___ जैनमेघदूतम् की क्लिष्टता एवं दुरूहतापूर्ण वाक्य-रचना यही स्पष्ट करती है कि कवि को प्रसाद गुण जैसे सरल, सहज एवं सर्वसामान्यगम्य गुण का प्रयोग उपयुक्त नहीं प्रतीत हुआ, तभी उन्होंने इस प्रकार की व्यञ्जनासिक्त भाषा का प्रयोग कर अपने इस काव्य को माधुर्य गुण में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org