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२०२ : जैनमेघदूतम् तो इनका रूप बाह्य तथा मूर्त न रहकर आन्तरिक हो गया और ये चित्तवृत्तिरूप मान लिये गये। काव्य के आस्वादन से सम्बन्धित तीन अवस्थाएँ चित्त की होती हैं-ति, दीप्ति और व्यापकत्व; तदनुसार काव्य-गुण भी तीन ही हुए-माधुर्य, ओज और प्रसाद । _आचार्य मम्मट ने उपर्यत तीन गुणों के हो अस्तित्व को सिद्ध किया है। इस विषय में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है
माधुर्योजः प्रसादाख्यास्त्रयस्ते न पुनर्दश' । इस प्रकार आचार्य मम्मट ने वामन आदि के दस गुणों के सामने अपनी माधुर्य, ओज और प्रसाद इन तीन गुणों की मान्यता स्थापित की है। __ माधुर्य गुण शृङ्गार आदि रसास्वाद में सहृदय हृदय की द्रुति से सम्बद्ध है, ओज गुण रौद्रादि रसास्वाद में सामाजिक चित्त की दीप्ति से सम्बद्ध है और प्रसाद गण सर्व रस साधारण गुण है. क्योंकि मन की प्रसन्नता सभी रसों के आस्वाद में सिद्ध है। __ माधुर्य, ओज और प्रसाद इन तीनों गणों का स्पष्ट स्वरूप लोकव्यवहार को ध्यान में रखने से भी आ सकता है। जब किसी से प्रेमपूर्ण बातें की जाती हैं तो उस समय कठोर शब्दों के बजाय मधुर शब्दों का ही प्रयोग किया जाता है, परन्तु यदि किसी से क्रुद्ध होकर बात करते हैं तो उस समय मधुर शब्दों का प्रयोग न कर कठोर शब्दों का ही प्रयोग किया जाता है। इसी तरह व्याख्यान देते समय अथवा कोई लेख आदि लिखते समय, अपने विशेष उद्देश्य की सिद्धि हेतु प्रयत्नपूर्वक प्रभावयुक्त शब्दों का प्रयोग किया जाता है, किन्तु किसी साधारण बात-चीत के समय ऐसा कोई प्रयत्न नहीं करते हैं । यह प्रतिदिन का अनुभव है । इसी अनुभव को, काव्य गुणों को स्पष्ट रूप से समझने के लिए उपयोग में लिया जा सकता है। रसों को ध्यान में रखकर ही गुणों का प्रयोग किया जाता है । शृङ्गार, विप्रलम्भ, शान्त आदि कोमलभाव वाले रसों की मधुरता का प्रदर्शन तभी किया जा सकता है, जब मधुर शब्दों का प्रयोग हो । इसी तरह वीर, रौद्र, बीभत्स आदि उग्रभाव वाले रसों की उग्रता का ठीकठीक प्रदर्शन तभी हो सकता है, जब कठोर शब्द प्रयुक्त किये जायें।।
कवि का वास्तविक उद्देश्य यही रहता है कि वह अपनी कविता द्वारा अपने हृदय के भावों को दूसरे सामाजिक हृदय के समक्ष प्रकट करे । इसमें सबसे प्रमुख बात यह है कि उसकी कविता में अप्रचलित
१. काव्यप्रकाश, ८/६८ ।
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