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________________ भूमिका : २०१ के स्थान पर तो रस ही रहता है अर्थात् जिस प्रकार शरीर में आत्मा प्रधान होती है, उसी प्रकार काव्य में रस प्रधान होता है और जिस प्रकार आत्मा के धर्म शुरत्व आदि हैं, उसी प्रकार काव्य रस का धर्म गुण है । गुण रस के उत्कर्ष के कारण होते हैं और इनकी स्थिति अचल होती है ये रसस्याङ्गिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः । उत्कर्ष हेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुणाः ॥ अचल स्थिति का तात्पर्य यह है कि बिना रस के इसकी स्थिति नहीं हो सकती और जब इनकी स्थिति काव्य में होगी तो ये रस का उपकार भी अवश्य करेंगे । इस प्रकार गुण काव्य की शोभा बढ़ाने वाले अन्तरंग धर्म होते हैं | तददोषौ शब्दार्थी सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि । इस काव्य-लक्षण में 'सगुणी' कहकर आचार्य मम्मट ने यह स्पष्ट किया है कि गुणों की स्थिति काव्य में सर्वत्र रहती है। ऐसा कोई काव्य ही नहीं, जिसमें कहीं न कहीं गुण विद्यमान न हो, यहाँ तक कि निर्गुण काव्य की कल्पना हो असम्भव है । गुण रस का सदैव पोषक ही रहता है । कभी-कभी तो वर्तमान होकर भी अलङ्कार रस का तनिक भी उपकार नहीं करता, बल्कि वह बिलकुल विरोधी बातों को पुष्ट करने लगता है । इसी बात को स्पष्ट करते हुए साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने काव्य में सदैव विद्यमान रहने वाले, अचल स्थिति वाले तथा शोभा के उत्कर्ष को बढ़ाने वाले रस के धर्म को गुण कहा है ३ रसस्याङ्गित्वमाप्तस्य धर्माः शौर्यादयो यथा । इस प्रकार गुण के आधार पर हो काव्य का सारा अस्तित्व आधारित रहता है । इन काव्य-गुणों की संख्या स्थापन के विषय में भी आचार्यों ने पर्याप्त विचार किया है । जहाँ एक ओर इन काव्य-गुणों की संख्या में तीव्र वृद्धि की गयी है, वहीं दूसरी ओर किञ्चित् गम्भीरचेता आचार्यों ने गुणों की संख्या को वैज्ञानिक आधार पर नियमित करने के भी बहुत सत्प्रयत्न किये हैं । ' काव्यशास्त्र के आरम्भ काल में ही भामह ने तीन गुणों की सत्ता को स्वीकार किया है । इन गुणों को जब रस-धर्म मान लिया गया, Jain Education International १. काव्यप्रकाश, ८/६६ । २ . वही, १/४ । ३. साहित्यदर्पण, ८/१ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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