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________________ जैनमेघदूतम् में गुण-विमर्श गुण : सामान्य परिचय: भौतिक जगत् में प्रायः ऐसा देखने में आता है कि किसी एक व्यक्ति को अत्यन्त तिरस्कार-भाव से देखा जाता है, उसका नाम आते ही भ्रकुटि खिंच जाती है और हृदय में उसके प्रति घृणा की भावना जाग्रत हो जाती है; परन्तु वहीं दूसरी ओर किञ्चित् ऐसे भी व्यक्ति देखे जाते हैं, जिन्हें अत्यन्त सम्मानपूर्ण दृष्टि से देखते हैं, उनके नाम-श्रवण मात्र से ही हृदय उनके प्रति आदर और स्नेह की सद्भावना से परिपूर्ण हो जाता है। यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होता है कि आखिर इस प्रकार के तिरस्कार एवं सत्कार की उद्भावना के उदय के प्रति कारण क्या है ? यह हृदय दो समान व्यक्तियों के प्रति आखिर असमान भावना क्यों प्रकट करता है ? इस प्रश्न के समाधानस्वरूप यही कहा जा सकता है कि प्रथम प्रकार के व्यक्ति के प्रति स्वहृदय में उत्पन्न तिरस्कार-भावना का कारण, उस व्यक्ति में विद्यमान दोषों की सत्ता है तथा द्वितीय प्रकार के व्यक्ति के प्रति स्वहृदय में उत्पन्न आदर-सम्मान की भावना का कारण, उस व्यक्ति में विद्यमान गुणों की सत्ता है। जहाँ एक ओर एक व्यक्ति किञ्चित् शारीरिक-विकारों, पागलपन, ईर्ष्या, असत्यकथन आदि मानसिक दोषों के कारण समाज में असत्ख्याति प्राप्त करता है, वहीं दूसरी ओर दूसरा व्यक्ति अपनी योग्यता, विद्वत्ता, वीरता, सत्यवादिता आदि विभिन्न गणों के कारण समाज में स्नेह-सम्मान व ख्याति प्राप्त करता है । ठीक यही स्थिति काव्य-जगत् को भी है। जहाँ किञ्चित् काव्य-दोषों के कारण कोई एक काव्य निन्दनीय हो जाता है, वहीं दूसरा काव्य अपने माधुर्यता आदि गुणों के कारण प्रशंसनीय हो जाता है और स्वयमेव हृदय को आकर्षित कर लेता है। ____जिस प्रकार शौर्य आदि गुणों का सम्बन्ध मनुष्य के शरीर के साथ नहीं प्रत्युत आत्मा के साथ होता है, अति कृशकाय व्यक्ति को भी शूरता के साथ कार्य करते देखा जाता है, क्योंकि उसकी आत्मा में शूरता है। ठीक इसी प्रकार शब्द और अर्थ काव्य के शरीर मात्र ही होते हैं, आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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