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भूमिका : १९९ इन काव्य-दोषों के सन्दर्भ में एक कारण सम्भवतः यह भी हो सकता है कि आचार्य मेरुतुङ्ग के काव्य में शृङ्गार रस के उभयपक्ष सहित करुण रस का हो उत्कृष्ट परिपाक मिलता है। परन्तु आलोचनात्मक दृष्टि से स्पष्ट प्रतीत होता है कि करुण रस की अभिव्यक्ति में वे उतनी अधिक सफलता नहीं प्राप्त कर पायें हैं, जितनी कालिदास ने प्राप्त कर ली है। स्वाभाविक भी है कि जिस व्यक्ति की रुचि जिस विषय में होती है तथा उस विषय की अभिव्यक्ति वह जितनी स्पष्टता, सरलता, सुगमता के साथ कर लेता है, उतनी सरलता से अन्येतर विषयों की नहीं । यही बात आचार्य मेरुतुङ्ग के साथ भी थी। भला एक जैन धर्माचार्य मुनि शृङ्गारिकतापूर्ण एवं कारुणिक वर्णनों की अभिव्यक्ति के भाव लायेगा कहाँ से? क्योंकि उसने समाज से तो क्या समस्त सुख दुःखों से भी संन्यास ले लिया है। उसके अनुभव से परे की वस्तुएँ हैं, ये सब । अतः उसके काव्य में शृाङ्गारिक एवं कारुणिक दृश्य होंगे भी कैसे ? और यदि होंगे भी तो वे भी शान्त रस से अभिप्रेरित ही होंगे । और फिर ऐसी स्थिति में काव्य-रचना में किञ्चित् प्रमादता स्वाभाविक भी है। यही कारण था कि करुण आदि रस के प्रयोग में वे उतनी गहराई को नहीं प्राप्त कर सके हैं, जितनी गहराई करुण रस के एक सिद्धहस्त कवि को अपेक्षित होती है । इसी कारण करुण रस प्रधान उनके जैनमेघदूतम् काव्य में कुछ सामान्य दोषों/त्रुटियों का हो जाना कोई विशेष बात नहीं है। ये जो थोड़ी-बहुत त्रुटियाँ हैं भी, तो वे भी काव्य के अनेक गुणों-विशेषताओं के समहों के आवरण से छिप सी गयी हैं, या यों कह सकते हैं कि स्थल दृष्टि से देखने पर तो इन दोषों के कारण काव्य सदोष प्रतीत होता है, किन्तु सूक्ष्मेक्षिक रूप से विचारने पर काव्य पूर्णतया निर्दोष ही सिद्ध होता है। अतः इन काव्य-दोषों को दोष न कहकर दोषाभास ही कहना अधिक उपयुक्त होगा। फिर भी यदि एकाध स्थल वस्तुतः सदोष हैं भी, तो वे न होने के बराबर उसी प्रकार ही माने जायेंगे, जैसे कि रत्न में कहीं-कहीं कीटानुवेध अर्थात् कीड़े के छेद आदि दोष हो जाते हैं, फिर भी उसके मूल्य में किञ्चिदपि न्यूनता नहीं आती है___ नहि कोटानुवेधादयो रत्नस्य रत्नत्वं व्याहन्तुमीशाः, किन्तु उपादेयतारतम्यमेव कर्तुम् तद्वदत्र श्रुतिदुष्टादयोऽपि काव्यस्य । उक्तं च
कीटानुविद्धरत्नादिसाधारण्येन काव्यता।
दुष्टेष्वपि मता यत्र रसाधनुगमः स्फुटः ॥ .. १. साहित्यदर्पण, १/२ (वृत्ति)।
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