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________________ " " १९८ : जैनमेघदूतम् सहजतया प्रकट नहीं कर पाते हैं, तो उन्हें एक प्रकार के दोष की कोटि में ही रखा जाता है। फिर भी ये दोष कोई इतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, जो कि इनकी उपस्थिति से सम्पूर्ण काव्य-रचना ही सौन्दर्यविहीन बन सके । मेघदत एवं जैनमेघदूत दोनों ही काव्य अपनी-अपनी रचना-शैली में अद्वितीय हैं। ये महत्त्वहीन अल्पसंख्यक दोष समग्र काव्य पर अपना किञ्चित्मात्र भी प्रभाव नहीं डाल पाये हैं। अतः दोनों काव्य सामान्यतया अदोष ही प्रतीत होते हैं। ये जो कुछ दोष हैं भी, वे कुछ इस प्रकार के हैं कि साधारणरूप में सामान्य-जन इन दोषों को पकड़ ही नहीं सकते हैं। ये अत्यन्त सूक्ष्म दोष समग्र काव्य का विशद् अध्ययन करने पर ही; तथा काव्य के प्रत्येक पद को समालोचनात्मक दृष्टि से देखने पर ही दृष्टिगत हो पाते हैं। कालिदासीय मेघदूत में सन्निविष्ट ऐसे किञ्चित् काव्य-दोष निम्न हैंअयुक्तिमद् दोष, च्युतसंस्कृति दोष, अश्लीलता दोष, पुनरुक्ति दाष, विधेयाऽऽविमर्श दोष, श्लोक-क्रम-भंग दोष आदि । इसी प्रकार हमने देखा कि आचार्य मेरुतुङ्गकृत जैनमेघदूतम् में अयुक्तिमद् दोष, च्युतसंस्कृति दोष हीनोपमा दोष, अधिकोपमा दोष, नवीन एवं गूढ शब्द-प्रयोग दोष, अप्रसिद्ध प्रयोग दोष आदि काव्य-दोष उपलब्ध होते हैं। __ आचार्य मेरुतुङ्ग के जैनमेघदूतम् में ऐसे काव्य-दोषों की उपस्थिति का मुख्य कारण उनकी काव्य-रचना है, जो कालिदासीय मेघदूत के आधार पर ही रची गयी है। कालिदासीय मेघदूत के समान ही जैनमेघदूतम् को भी रचने के प्रयास में ये किञ्चित् अप्रत्याशित दोष उपस्थित हो गये हैं, जिसका कवि को किञ्चित् आभास ही नहीं हुआ। इसके अतिरिक्त कुछ दोष नवीन व्याकरणात्मक एवं अप्रचलित गूढ़ शब्दों के प्रयोग के कारण भी हो गये हैं। इसलिए आचार्य मेरुतुङ्ग के इस प्रथम काव्य-रचना-प्रयास में ऐसे सूक्ष्म दोष होते हुए भी बहुत सी विशेषताएँ हैं और उन्हीं विशेषताओं के आवरण में ये किञ्चित् अतिसूक्ष्म दोष तिरोहित हो गये हैं। अतः इन सूक्ष्म दोषों के आधार पर समग्र काव्य को दोषयुक्त कह देना न्यायोचित एवं तथ्यसंगत प्रतीत नहीं होता है । ___ कालिदासीय मेघदूत और आचार्य मेरुतुङ्गकृत जैनमेघदूतम् दोनों ही काव्य अणु सदृश सुक्ष्म किञ्चित् काव्य-दोषों के होते हुए भी हीरे के समान सुन्दर कान्तिमय एवं महत्त्वपूर्ण ही हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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