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भूमिका : १९७ 'प्रयोग भी दोष की ही कोटि में रखे जाते हैं। क्योंकि ऐसे नवीन व्याकरणनिष्ठ प्रयोग शोकाकूल एवं करुण रसासिक्त सहृदय पाठक के लिए सद्यःसंवेद्य नहीं हो सकते हैं। उस समय तो उसे ऐसे शब्दों की आवश्यकता होती है, जिसे वह सद्यः हृद्गत कर सके । अतः ऐसे स्थल पर नवीन व्याकरणात्मक शब्दों की अपेक्षा सरल एवं सामान्यजन-ग्राह्य शब्दों के प्रयोग ही सफल हो सकते हैं ।
सर्वानन्यानपि ननु सुखाकुर्वतः प्रीतितन्तुस्यूतस्वान्ताः प्रणयविनयाधानदैन्यं प्रपन्नाः। दुखाकर्तुं तव समुचिता न प्रजावत्य एता
राजोविन्यो दिनकृत इवावोचदित्यच्युतोऽपि ॥ इस श्लोक के 'दुःखाकर्तुम् , सुखाकुर्वतः' ऐसे दो नवीन व्याकरणात्मक प्रयोग हैं, जिनका प्रयोग आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में किया है। इन नवीन व्याकरणात्मक प्रयोगों को ऐसे विरह एवं करुण प्रधान काव्य के ‘इन सुकोमल एवं नाजुक स्थलों पर प्रयुक्त करना दोषयुक्त ही प्रतीत होता है।
इस प्रकार जैनमेघदूतम् उपर्युक्त विभिन्न दोषों से ग्रथित मिलता है। 'परन्तु काव्य के ये अतिसूक्ष्म दोष काव्य के अनेक गुणों एवं विशेषताओं के सम्मुख धूमिल से ही प्रतीत होते हैं, अतः काव्य में इनको विशेष महत्त्व नहीं दिया जा सकता है। दोष-समीक्षण (कालिदासीय मेघदूत के परिप्रेक्ष्य में) :
कालिदासीय मेघदूत में सन्निविष्ट काव्य-दोषों के परिप्रेक्ष्य में जब हम जैनमेघदूतम् के काव्य-दोषों की समीक्षा करते हैं तो निष्कर्ष रूप में यही कह सकते हैं कि आचार्य मेरुतुङ्ग के जैनमेघदूतम् में सन्निविष्ट पूर्वविवेचित काव्य-दोषों के समान ही कालिदास के मेघदूत में भी नाम मात्र के कुछ दोष उपलब्ध होते हैं। आचार्य मेरुतुङ्ग के काव्य में कुछ मुख्य-मुख्य उपर्युक्त दोषों के अतिरिक्त ऐसे कुछ अतिसूक्ष्म दोष भो कहे जा सकते हैं, जो वास्तव में दोष न होकर भी एक रूप से दोष के समान ही प्रतीत होते हैं। क्योंकि काव्य में जब ऐसे शब्द प्रयुक्त हो जाते हैं. जो अपनी अप्रसिद्धता, नवीनता एवं गूढार्थता के कारण अपना अर्थ
१. जैन मेघदूतम्, ३/१७ ।
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