SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९६ : जैनमेघदूतम् निर्मित एक विशिष्ट भोज्य-पदार्थ) होता है, परन्तु इस अर्थ से यहाँ श्लोक का भाव पूर्ण स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। - इस प्रकार मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में अनेक नवीन एवं गूढ़ शब्दों के प्रयोग प्रस्तुत किये हैं, जो विचारणीय हैं। " अप्रसिद्ध-प्रयोग दोष : कवि ने जैनमेघदूतम् में किञ्चित् ऐसे भी प्रयोग कर दिये हैं, जिनका वर्तमान समय में कोई अर्थ ही नहीं स्पष्ट होता मिलता है। ऐसा हो सकता है कि ऐसे शब्दों का प्रयोग एवं इन शब्दों की क्रियाओं का प्रयोग पूर्व में किसी समय या फिर स्वयं कवि के समय में किया जाता रहा हो, परन्तु वर्तमान सामाजिक साहित्य में प्रायः ये प्रयोग नहीं मिलते हैं। यथा वर्णोद्वर्णस्नपनवसनालेपनापोडपुण्डा ऽलङकारस्तं प्रभुमपि च मामन्यतोऽलञ्चकार'। , इस श्लोकार्ध में 'वर्णोद्वर्ण' शब्द इसी प्रकार का एक अप्रचलित प्रयोग है। टीकाकार शीलरत्नसूरि ने भी इसके सम्बन्ध में मात्र इतना ही लिखा है-'वाना-ऊवना इति लोके रूढौ' । । शायद यह कोई संस्कार विशेष है । परन्तु वर्तमान सामाजिक-संस्कारों में इसका कोई स्थान नहीं होने के कारण आज इस शब्द का प्रयोग और उसकी क्रिया का किसी को बोध नहीं है । अतः एक प्रकार से ये एक अप्रसिद्ध प्रयोग ही है। नर्तेऽर्तीनां नियतमवरावावरीमां तपस्यां यस्योदर्कः सततसुखकृत्कृत्यमध्यं सतां तत् ॥ इसी प्रकार इस श्लोकार्ध में भी कवि ने 'अवावरी' शब्द का प्रयोग किया है । इस शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है ? यह नहीं स्पष्ट हो पाता है । यह शब्द किसी विशेष अर्थ में प्रयुक्त है, परन्तु वर्तमान सामाजिक साहित्य में प्रयुक्त न होने के कारण इसका अर्थ भी निगूढ़ित हो रह गया है । इसीलिए यह भी एक अप्रसिद्ध प्रयोग ही है। ___ नवीन व्याकरणात्मक प्रयोग भी जैनमेघदूतम् में एकाध स्थल पर दृष्टिगत होते हैं, जो कवि की विशेषता ही कही जा सकती है। परन्तु सामान्यजन द्वारा सद्यःग्राह्य न होने के कारण ऐसे नवीन व्याकरणात्मक १. जैनमेघदूतम्, ३/३० (उतरार्ध)। २. वही, ३/४८ (पूर्वार्ध)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy