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भूमिका : १९५ प्रयोग आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने भाषा-अधिकार को प्रदर्शित करने के विचार से ही शायद किया है। तभी तो उन्होंने ऐसे नवीन-नवीन शब्दों को अपनी भाषा में प्रयुक्त कर दिया है, जिनके अर्थ किसी प्रमुख कोश में भी विरल रूप से ही उपलब्ध होते हैं ।
प्रस्तुत काव्य के द्वितीय सर्ग में प्रयुक्त ऐसे किञ्चित् नवीन अर्थ वाले शब्द देखे जा सकते हैं । यथा-अमा', बर्कर', हल्लोसक', तन्त्र, खरु', वशा', राढः आदि । इसी प्रकार तृतीय सर्ग में पेञ्जूष', मत्तालम्ब शब्द तथा चतुर्थ सर्ग में प्रयुक्त शब्द उषा भी एक नवीन शब्द ही प्रतीत होता है । इन उपयुक्त नवीन शब्दों के अतिरिक्त कवि ने किञ्चित् ऐसे गूढ़ शब्दों का भी प्रयोग किया है, जिनका अर्थ सरलतापूर्वक निकाल पाना अति दुश्शक है । यथा-शुङ्गिका', ववलिरे१२, प्राभृत, उलूलध्वनिः१४, नवरसा, क्षैरेयो आदि शब्द । इन उपयुक्त गूढ़ शब्दों का टीकाकार शीलरत्नहरि ने भी कोई विशेष उल्लेख नहीं किया है और न ही इन शब्दों का विशिष्ट अर्थ प्रायः कोशों से ही ज्ञात हो पाता है । वैसे "क्षरेयी" शब्द का सामान्य रूप में अर्थ "खीर" (दुग्ध, चावल, शर्करा के मिश्रण से
१. जैनमेवदूतम्, २/१२ । २. वही, २/१२। ३. वही, २/१६ । ४. वही, २/२५ । ५. वही, २/२५ । ६. वही, २/४० । ७. वही, २/४९ । ८. वही, ३/३७ ।
९. वही, ३/३७ । १०. वही, ४/३४ ।। ११. वही, २/१५ । १२. वही, २/१८ । १३. वही, २३७ । १४. वही, ३/२८ । १५. वही, ४/१५ । १६. वही, ४/१५ ।
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