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१९४ : जैनमेघदूतम् (श्रीनेमि के) चरणों के, कदलीस्तम्भ उनकी ऊरुओं के, गंगा का तट उनकी कटि के, शोण (महाह्रद) उनकी नाभि के, तोरण उनके वक्ष के, कल्पवृक्ष की शाखा उनकी भुजा के और किसलय उनके करों के, पूर्णचन्द्र उनके श्र मुख के, कमलपत्र उनके नेत्रों के, पुष्प-सुगन्ध उनके मुखामोद के एवं उत्तम रत्न उनके शरीर के तुल्य हैं। हालांकि इस सन्दर्भ में कवि मेरुतुङ्ग ने इसी श्लोक में स्वयं स्पष्ट कह भी दिया है
वयेऽर्थोघे क्वचिदुपमिति दधुरेवं बुधाश्चे
देतस्याङ्गर्भवति उपमाधिक्यदोषस्तथापि ॥ अर्थात् यदि विद्वान् कहीं भी वर्णनीया पदार्थ-समूह में उनके अंगों द्वारा उपमिति देता है, तो भी उपमाधिक्य दोष होता है। यहाँ पर कवि के उपमाधिक्य दोष का तात्पर्य अधिकोपमा दोष से ही है। यहाँ इस युग्मक श्लोक में कमल, कदलीस्तम्भ, गंगा-तट, शोण, तोरण, कल्पवृक्ष की शाखा, किसलय, पूर्णचन्द्र, कमलपत्र, पुष्प-सुगन्ध एवं उत्तम-रत्न रूपी उपमेय से चरण, ऊरु, कटि, नाभि, वक्ष, भुजा, कर, श्रीमुख, नेत्र, मुखामोद एवं शरीर रूपी उपमान अत्यधिक गुणवान् प्रतीत होते हैं । अतः प्रकृत स्थल में अधिकोपमा दोष स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होता है। वैसे इस दोष के हो आधार पर आचार्य मेरुतुङ्ग की सारी उपमाएँ आधारित मिलती हैं, जिनके प्रयोग से कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा है, फिर भी दोष हैं तो दोष ही, चाहे साधारण हों या विशिष्ट । अतः जैनमेघदूतम् में उपस्थित काव्य-दोषों में उपर्युक्त अधिकोपमा दोष एक विशिष्ट दोष के रूप में गिना जाता है, क्योंकि जैनमेघदूतम् में अधिकोपमा दोष का यह प्रयोग आचार्य दण्डी के निम्नोक्त कथनानुसार उतना अधिक उल्लेख्य नहीं है
यत्रोद्वेगो न धीमताम्। अर्थात् कोई भी दोष तब तक दोष नहीं है, जबतक उससे विद्वानों को उद्वेग न हो, वह उन्हें खटके नहीं।
नवीन एवं गूढ शब्द-प्रयोग दोष : आचार्य मेरुतुङ्ग के जैनमेघदूतम् में ऐसे अनेक शब्द देखने को मिलते हैं, जिनका भाव स्पष्ट कर पाना सामान्य रसिक के लिए तो क्या सुविज्ञरसिक के लिए भी क्लिष्टकर ही है। उनके काव्य में किञ्चित् ऐसे शब्द मिलते हैं, जिनका प्रयोग साहित्य में सामान्य रूप से देखने को नहीं मिलता है। ऐसे शब्दों के
१. काव्यादर्श, २/५१।
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