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________________ भूमिका : १९३ त्वं जीमत ! प्रथितमहिमानन्यसाध्योपकारः कस्त्वां वीक्ष्य प्रसृतिसदृशो स्वे दृशौ नो विधत्ते। दानात्कल्पद्रुमसुरमणी तौ त्वयाऽधोऽक्रियेतां कस्तुभ्यं न स्पृहयति जगज्जन्तुजीवातुलक्षम्य ॥ अर्थात् हे जीमूत ! अन्य से असाध्य उपकारों के कारण आप विख्यात महिमावाले हैं, आपको देखकर अपनी आँखों को कौन विशाल नहीं बना लेता है। आपने अपने दान से प्रसिद्ध कल्पवृक्ष और चिन्तामणि को नीचे कर दिया है, जगत् के जीवन की लक्ष्मी (जल, विद्युत् आदि) को धारण करने वाले आपकी इच्छा कौन नहीं करता है। ..' यहाँ पर कवि ने उपमान सुरमणि और कल्पवृक्ष को उपमेय मेघ से. हीन के रूप में चित्रित किया है, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है । सुरमणि और कल्पवृक्ष दोनों ही उपमान, उपमेय मेघ से स्वभावतः विशिष्ट हैं। अतः आचार्य मेरुतुङ्ग द्वारा दोनों उपमानों को उपमेय से हीन व्यक्त करना यहाँ हीनोपमा दोष की उपस्थिति का कारण है। . अधिकोपमा दोष : हीनोपमा दोष की भाँति ही आचार्य मेरुतुङ्ग के काव्य में अधिकोपमा दोष के भी एकाध प्रयोग दृष्टिगत होते हैं । अधिकोपमा दोष वहाँ पर उपस्थित होता है, जहाँ पर उपमान को उपमेय से अधिक गुणसम्पन्न अभिव्यक्त करने का प्रयास किया जाता है। जैनमेघदूतम् में अधिकोपमा दोष का मात्र एक प्रयोग मिलता है । परन्तु यह एक दुष्प्रयोग ही कुछ कम महत्त्व का नहीं है पद्म पद्भ्यां सरलकदलीकाण्ड ऊर्वोर्युगेन स्वर्वाहिन्याः पुलिनममलं नेमिनः श्रोणिनैव । शोणो नाभ्याञ्चति सदृशतां गोपुरं वक्षसा च शुद्रोः शाखानवकिशलये बाहुपाणिद्वयेन ॥ पूर्णेन्दुः श्रीसदनवदनेनाब्जपत्रं च दृग्भ्यां पुष्पामोदो मुखपरिमलै रिष्टरत्नं च तन्वा । वऽर्थोघे क्वचिदुपमिति दयुरेवं बुधाश्चे देतस्याङ्गर्भवति उपमाधिक्यदोषस्तथापि ॥२ .. काव्य के प्रथम सर्ग के इस श्लोक में कवि ने अधिकोपमा दोष उपस्थित कर दिया है । इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार है-'कमल उनके १. जैनमेघदूतम्, १/१२ । २. वही, १/२३, २४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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