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१९२ : जैनमेघदूतम्
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इसी प्रकार इस श्लोक में कवि ने "भोगी" शब्द के लिए "श्रेयः सारागम" तथा "नासान्य जैसे विशेषण तथा "योगी" शब्द के लिए "चन्दनस्याङ्गरागः " आदि विशेषण प्रयुक्त किये हैं, जो संगत एवं समीचीन नहीं प्रतीत होते हैं । ऐसा शायद प्रमादवश ही हुआ है ।
देवव्यूहैः समनुचरितः सर्वतो मागधभिः ज्ञातेयेषु प्रसृतमतिभिः साक्षभिर्दृश्यभूतिः । दिव्यातोद्ये निनदति मया काननं भूषिताङ्गो गच्छन् दृष्टो रविरिव वनान्नीरजिन्या गवाक्षात् ॥
चतुर्थ सर्ग के इस श्लोक में कवि ने “दिव्यातोद्ये निनदति मया काननं भूषिताङ्गो, गच्छन् दृष्टो रविरिव वनान्नीरजिन्या गवाक्षात् " ऐसा लिखा है । परन्तु इसमें कवि ने "वनात् काननं गच्छन् दृष्टः " ऐसा कहा है, जबकि यहाँ पर " काननं" कर्म की अपेक्षा अनावश्यक है और "वनात् गच्छन् दृष्टः” यही इतना पर्याप्त है ।
इस प्रकार जैनमेघदूतम् में च्युतसंस्कृति दोष के अनेक स्थल दृष्टिगत होते हैं । परन्तु इन काव्य-दोषों के बावजूद भी काव्य के विविध स्वरूप (बाह्य शिल्प-विधान, स्वरूप एवं भाषा तथा आन्तरिक भावार्थ ) पर रञ्चमात्र भी प्रभाव नहीं आया है । यही कारण है कि इन उपर्युक्त अशुद्ध व्याकरणात्मक प्रयोगों के होने पर भी जैनमेघदूतम् काव्य सहृदय रसिक - संवेद्य एवं चित्ताकर्षक है ।
नोपमा दोष : आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने काव्य में उपमाओं का भी अत्यधिक प्रयोग किया है । परन्तु इनकी ये उपमाएँ उतनी सशक्त नहीं हो पायी हैं । यही कारण है कि जैनमेघदूतम् में प्रयुक्त इन उपमाओं के सम्बन्ध में भी किञ्चित् दोष स्पष्ट होता मिलता है । वह दोष है - हीनोपमा दोष । जब कहीं-कहीं काव्य में उपमेय की अपेक्षा उपमान अधिक हीन प्रतीत होने लगे, तो वहाँ पर हीनोपमा नामक दोष होता है ।
आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में उपमाओं के प्रयोग में सावधानी नहीं रखी है, उन्होंने उपमान व उपमेय की नाप-तौल नहीं की है। इसी कारण उनके काव्य में उपमेय की अपेक्षा, उपमान कहीं-कहीं अधिक हीन प्रतीत होने लगा है, जो होनोपमा दोष का परिचायक है । ऐसी एक शंका काव्य के प्रथम सर्ग के एक श्लोक में उठती है
१. जैनमेघदूतम्, ४/४ |
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