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भूमिका : १९१
इस श्लोक में "सुखमं" शब्द का "ख" कार चिन्त्य है । टीकाकार शील रत्नसूरि ने भी सुखमा पाठ ही प्रस्तुत किया है । इसका प्रामाणिक तथा शुद्ध पाठ " सुषमा " होना चाहिए था |
नानारूपाः सदृशवयसो हंसवद्वीच यस्तं
देवा एवानिशमरमयत्केलिवापीषु भक्त्या ' ॥
इस श्लोक में "देवाः " कर्ता की क्रिया "अरमयत्" दी गयी है, जबकि टीकाकार आचार्य शीलरत्नसूरि ने "अरमयन्" क्रिया ही लिखी है । अतः श्लोक के मूल में भी "अरमयन्" ही होना चाहिए था । ताश्चानङ्ग पशुपतिदुतं गूढमार्गे शयानं सख्यू राज्ये जहति पुरुहे चात्रजातेऽपि जाते ? |
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इसी प्रकार द्वितीय सर्ग के एक श्लोक में कवि ने " जहति" क्रिया लिखी है, जबकी यह सदोष ही है । क्योंकि टीकाकार ने "जयति" रूप ही प्रस्तुत किया है और यहो श्लोक के भाव के आधार पर होना भी चाहिए था, ।
दोरन्ध्रे
सुरनरवराहूतिहेतोरिवोच्च
रातोद्यौघध्वनिभिरभितः पूरिते भूरितेजाः । अध्यारोहम्मदकलमिभं विश्वभर्ती पवाह्यं गत्यैवाधः कृतिमतितरां प्रापिपत् पौनरुक्त्यम् ॥
तृतीय सर्ग के इस श्लोक में कवि ने "अभितः " और "रोदस्" दो शब्दों का प्रयोग किया है; जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए, क्योंकि दोनों शब्दों का अर्थ प्रायः एक ही है । " अभितः " शब्द से तात्पर्य सब ओर से है, अतः जब "सब ओर" यह अर्थ "अभितः " से ही स्पष्ट हो रहा है तो "रोदस्" अर्थात् आकाश और पृथ्वी के मध्य का अन्तराल शब्द के प्रयोग की क्या आवश्यकता थी । इसी श्लोक के चतुर्थ चरण में " 'अधः कृति" शब्द के स्थान पर " अधः कृत" शब्द होना चाहिए था । श्रेय सारागममुपयमाद्यङ्गमय्यासनस्थं
नासान्यस्तस्तिमितनयनं पुण्यनेपथ्ययोगम् । शुक्लध्यानोपगतमिव सच्चन्दनस्याङ्गरागेस्तत्राद्राक्षं जगदिनमहं भोगिनं योगिनं वा ॥
१. जैनमेघदूतम्, १/२० ( उत्तरार्ध) |
२ . वही, २ / १८ (पूर्वार्ध) |
३. वही, ३/३१ । ४. वही, ३/३८ ।
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