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________________ १९० : जेनमेघदूतम् दोनों की स्थिति विशेष प्रदर्शित कर डाली है। अतः भामह का यह अयुक्तिमद् दोष जैनमेघदूतम् में नहीं स्थिर हो पाता है। ___ च्यूतसंस्कृति दोष : जब किसी काव्य में कोई पद शब्दशास्त्र के नियमों के विपरीत होता है अथवा काव्य में कहीं पर कोई अशुद्ध व्याकरण का प्रयोग कर दिया जाता है, तो उस काव्य के उस स्थान पर 'च्युत-संस्कृति दोष' माना जाता है। इसी कारण शुद्ध भाषा के महत्त्व को ध्यान में रख कर प्राचीन काव्यशास्त्रियों ने संस्कृत कवियों के विवादास्पद प्रयोगों की समीक्षा करने के लिए अपने ग्रन्थों में दोष का एक स्वतन्त्र प्रकरण ही प्रकाशित कर डाला है। कालिदास के पूर्वकालीन अश्वघोष तथा भास जैसे कवियों के काल तक व्याकरण की शुद्धता की तरफ विशेष ध्यान किसी का भी नहीं हुआ, इसी कारण उनके ग्रन्थों में अशुद्ध व्याकरणात्मक प्रयोगों की बहुलता मिलती है । काव्य के यही दोष महर्षि व्यास, आदिकवि वाल्मीकि आदि महाकवियों के काव्यों में भी हैं, परन्तु उनकी दिव्यसाधना, तपस्या के कारण उन्हें तथा उनके काव्य-ग्रन्थों को इतना सम्मान प्राप्त हुआ कि उनके व्याकरण-दुष्ट-प्रयोगों को दोष कहने की बजाय 'आर्ष' कहने की परम्परा निकल पड़ी, फिर भी अश्वघोष आदि के काव्यों के अशुद्ध प्रयोगों को सभी समालोचक दोष ही मानते हैं। ___ आचार्य मेरुतुङ्ग के जैनमेघदूतम् में च्युतसंस्कृति के अनेक दुष्प्रयोग परिलक्षित होते हैं। उन्होंने व्याकरणनिष्ठ काव्य रचने की ललक में अनेक ऐसे प्रयोग कर डाले हैं, जिन पर समालोचनात्मक दष्टि पड़ने पर वे काव्य-दोष के रूप में स्पष्ट होने लगते हैं। ऐसे दुष्प्रयोगों से किञ्चिदपि अर्थ नहीं निकलता है तथा श्लोक में भावक्रम टूटता सा प्रतीत होने लगता है। ऐसी स्थिति में पूरा का पूरा श्लोक नीरस आभासित होने लगता है। इस काव्य में प्रस्तुत किञ्चित् व्याकरणात्मक प्रयोग इतने भ्रामक हैं. जो किसी भी रसिक के मस्तिष्क को एक बार चकरा देते हैं । ऐसे ही व्याकरण सम्बन्धी कुछ प्रमुख दुष्प्रयोग यहाँ प्रस्तुत हैं काव्य के प्रथम सर्ग के किञ्चित् श्लोकों में ऐसी कुछ व्याकरणात्मक अशुद्धियाँ मिलती हैं । यथा लोकातीतोल्लसितसुखमं यस्य बाल्येऽपि रूपं तस्य स्थाम्नि श्वयति पुरुहे यौवने केन वर्ण्यम्' । १. जैनमेघदूतम्, १/२२ (पूर्वार्ध)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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