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भूमिका : १८९. बोल सकने वाले प्राणियों द्वारा सन्देश भेजने की रीति ऐसे अवसरों पर निन्दनीय है, जब तक कि सन्देश को भेजने वाला अपनी साधारण अवस्था में हो।
भामह के उपर्युक्त कथनानुसार आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने काव्य की सन्देश-प्रेषिका नायिका (राजीमती) को सामान्य-स्थिति से परे कर एक विशेष विक्षिप्ततापूर्ण मानसिक-स्थिति में प्रस्तुत किया है।
काव्यकार ने काव्य के प्रारम्भ में ही स्पष्ट किया है कि प्रिय के विरह से उद्दीप्त काम से पीड़ित की जाती हुई भोजकन्या (काव्य नायिका राजीमती) मूच्छित हो गई। चन्दन-जला-वस्त्रादि-प्रभूत शीतोपचार द्वारा कथमेव चेतना वापस होने पर राजीमती उसी विक्षिप्तावस्था में ही, हृदय में तीन उत्कण्ठा उत्पन्न करने वाले मेघ को देखती है। वह करुण एवं विरहपूर्ण प्रलाप करती हुई३, सामने दृश्यमान मेघ को अपने प्रेयस् के समीप अपना सन्देशप्रेषण के लिए नियुक्त करने को सोचती है
तप्ताश्मेव स्फुटति हि हिरुक् प्रेयसो हृन्ममैत
स्तत्कारुण्याणवमुपतदं प्रेषयाम्यब्दमेतम् ॥ कवि ने सन्देशहारक मेघ की अचेतनता को भी स्पष्ट करते हुए कहा है कि कहाँ वह अचेतन मेघ ? और कहाँ कुशल-वचनों वाले वक्ताओं से कहा जाने वाला तुम्हारा सन्देश ? तुम किसके आगे क्या कह रही हो? अथवा प्राज्ञशिरोमणि यह तुम्हारा दोष नहीं है, स्वभाव-परिवर्तन के मूल मोह का हो यह दोष है
क्वासी नेमिविषयविमुखस्तत्सुखेच्छुः क्व वा त्वं क्वासंज्ञोऽन्दः क्व पटुवचनैर्वाचिकं वाचनीयम् । कि कस्याने कथयसि सखि ! प्राज्ञचूडामणेर्वा
नो दोषस्ते प्रकृतिविकृतेर्मोह एवात्र मूलम् ॥ इस प्रकार भामह की उक्त आलोचना को आचार्य मेरुतुङ्ग ने भी वारित कर डाला है और अपने काव्य में सन्देशहारक एवं सन्देश-प्रेषिका १. जैनमेघदूतम्, १/२। २. वही, १/३। ३. वही, १/४, ५, ६, ७ । ४. वही, १/८ (पूर्वार्ध)। ५. वही, ४/३८ ।
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