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१८८ : जैनमेघदूतम् मेघदूतम् में भी बहुत सी त्रुटियां-अशुद्धियाँ मिलती हैं । ये त्रुटियाँ-अशुद्धियाँ
और कुछ नहीं, काव्य-दोष ही हैं। परन्तु उतनी अधिक लोक-प्रसिद्धि न मिल पाने के कारण यह जैनमेघदूतम् काव्य अपने तमाम सारे गुणों एवं विशेषताओं के साथ अपने किञ्चित् दोषों को भी हृद्गत किये एक कोने में ही पड़ा रहा। इस कारण इसके काव्य-गुण एवं विशेषताओं के साथ इसके काव्य-दोषों पर भी आवरण ही पड़ा रहा । यहाँ पर इस दूतकाव्य में समाहित उन्हीं किञ्चित् काव्य-दोषों का विवेचन अभिप्रेत है। ___ अयुक्तिमद दोष : सर्वप्रथम काव्यशास्त्र के प्राचीन आचार्य भामह के ही एक वक्तव्य को लेकर देख सकते हैं, जिन्होंने मेघ, वायु आदि को दूत बनाकर सन्देश भेजने वाले काव्य के रचनाकार की काफी आलोचना की है । वे इसको ‘अयुक्तिमत् दोष' कहते हैं। आचार्य मेरुतुङ्ग के काव्य में दूत रूप में मेघ को ही प्रस्तुत किया गया है। अतः आचार्य मेरुतुङ्ग भामह की आलोचना के विषय हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा है कि "मेघ, वायु, चन्द्र, भ्रमर, शुक, चक्रवाक आदि को दूत बनाकर भेजना, यह सभो बुद्धि के बिलकुल ही विपरीत जान पड़ता है। भला मेघ, वायु जैसे वाणी एवं प्राण-विहीन पदार्थ दूर देश तक विचरण कर दूतकर्म कैसे कर सकते हैं"
अयुक्तिमद् यथा दूता जलभृन्-मारुतेन्दवः । तथा भ्रमर हारीत चक्रवाक शुकादयः ॥ आवाचोऽव्यक्तवाचश्च दूरदेश विचारिणः ।
कथं दूत्यं प्रपद्येरन्निति युक्त्या न युज्यते ॥ परन्तु फिर भामह ने यह भी कहा है कि ऐसी युक्तियों को बड़े बुद्धिमान् कविगणों ने उन लोगों के लिये प्रयुक्त किया है, जो उन्मत्त हो गये हों, जिन्हें अपना कुछ भी ध्यान न रह गया हो
यदि चोत्कण्ठया यत्तदुन्मत्त इव भाषते।
तथा भवतु भूम्नेदं सुमेधोभि. प्रयुज्यते ॥ भामह की यह आलोचना काफी महत्त्वपूर्ण भी है और साधारणतः इस बात की शिक्षा भी देती है कि काव्यों में प्रेमियों की वायु, मेघ, चन्द्र, आदि जैसे प्राण-विहीनों द्वारा अथवा भ्रमर, शुक, चक्रवाक आदि न
१. काव्यालङ्कार, १/४२-४३ । २. वही, १/४४ ।
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