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________________ भूमिका : १८७ मम्मट अत्यन्त सतर्क आचार्य सिद्ध हुए हैं। उन्होंने काव्य-दोषों का नियमन एवं उसे एक व्यवस्था प्रदान की है। फिर भी शाखा विस्तार की प्रवृत्ति का वे भी संवरण नहीं कर पाये हैं। ____ कवि का कर्तव्य है कि वह सब प्रकार से अपने काव्य को दोष से उन्मुक्त रखे । यदि सर्वथा प्रयत्न करने पर भी वह मानव-सुलभ त्रुटियों का पात्र बनकर एकाध दोष कर ही बैठता है, तो भी कोई हानि नहीं होती। क्या सुधाकर की किरणों में उनका दोष रूप एक कलंक छिप नहीं जाता? क्या गुण-गरिमा से सम्पन्न काव्य में उसी प्रकार एक दोष नहीं छिप सकता ? इसी बात को एक कवि ने अपने काव्य में इस प्रकार से व्यक्त किया है एको हि दोषो गुणसन्निपाते। निम्मज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः ॥ __ यदा-कदा काव्य में दोष की सत्ता होने पर भो काव्य कुछ विशेष रूप से झलक उठता है और ऐसी स्थिति में वह दोष काव्य का अपकर्षक होने के बजाय काव्य का रसावर्जक होने के कारण नितान्त श्लाघनीय हो जाता है। क्या चन्द्रमा के काले धब्बे उसकी सुन्दरता बढ़ाने में सहायक नहीं होते हैं ? मलिनमपि हिमांशोलक्ष्म लक्ष्मों तनोति । कालिदास के अनुभूत सत्य की यह उक्ति काव्य-उपासकों के लिए क्या उपास्य नहीं है ? जैनमेघदूतम् में दोष : __अनेक गुणों एवं विशेषताओं से सम्पन्न आचार्य मेरुतुङ्ग का जैनमेघदूतम् किञ्चित् काव्य-दोषों के जाल में फंस गया है । यह काव्य भी पूर्णतया निर्दोष नहीं है और फिर होता भो तो कैसे ? इसकी रचना तो कालिदासीय मेघदूत के आधार पर ही हुई है। फिर जब वस्तु के आधार में ही किञ्चित् सदोष स्थल उपलब्ध हो सकते हैं तो आधेय तो स्पष्ट रूप से सदोष होगा ही। यही कारण है कि आचार्य मेरुतुङ्ग के जैन १. कुमारसम्भव, १/३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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