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१८६ : जैनमेघदूतम्
दोष-परिहार को काव्य का प्रथम अंग माना गया है। इसलिए भारतीय काव्य-शास्त्र में दोष-वर्णन बहुत आग्रह के साथ किया गया है।
निर्दोषता को अपने आप में स्वयं ही एक महान् गण मान लिया गया है
महान् निर्दोषता गुणः । इस निर्दोषता को प्राचीन आचार्यों ने ही नहीं, अपितु उत्तर-ध्वनिकाल के आचार्यों ने भी काव्यलक्षण का अनिवार्य अंग माना है। ___रस का जो अपकर्षण करे अथवा हानि करे, वह दोष है। इसमें रस को हानि तीन प्रकार से सम्भव है--(१) रस की प्रतीति का अभाव, (२) रस की विलम्ब से प्रतीति और (३) रस-प्रतीति में चमत्कार की मात्रा की न्यूनता। चूंकि रस परमानन्द की अवस्था है, अतः उसका अभाव, उसको विलम्ब से प्रतीति और न्यूनता तो निश्चित ही उद्वेग उत्पन्न करेगी। इसी से अग्निपुराणकार ने दोष का लक्षण किया है
उद्वेगनजनको दोषः । काव्यास्वाद में तत्पर चित्त में जो उद्वेग उत्पन्न करे, वह दोष है।
आचार्य मम्मट ने कहा है कि दोष वह है, जो मुख्य अर्थ का विघात अथवा अपकर्ष करता है अर्थात् जो काव्य के मुख्य अर्थ का विघातक या अपकर्षक हुआ करता है__ मुख्यार्थहतिर्दोषो रसश्च मुख्यस्तदाश्रयाद्वाच्यः ।
उभयोपयोगिनः स्युः शब्दाद्यास्तेन तेष्वपि सः ॥ उनका अभिप्राय है कि दोष अभीष्ट अर्थ की प्रतीति के बाधक हुआ करते हैं, विनाशक नहीं। काव्य में रस मुख्य होता है, परन्तु कहीं-कहीं नीरस काव्यों में भी दोष माना जाता है। सरस काव्य में यदि दोष होगा तो या तो रस की प्रतोति नहीं होगी या ऐसी प्रतीति होगी, जो अपकृष्ट होगी। नीरस काव्य में यदि दोष रहे तो या तो अर्थ की प्रतीति नहीं होगी या फिर प्रतीति विलम्ब से होगी या प्रतीति होने पर भी वह काव्य चमत्कार से शन्य होगा।
संस्कृत काव्य शास्त्र के आचार्यों ने काव्य-दोषों का निरूपण बड़े ही विस्तार एवं सूक्ष्मता के साथ किया है । इस दृष्टि से काव्यप्रकाशकार १. अग्निपुराण, ११/१ । २. काव्यप्रकाश, ७/४२ ।
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