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________________ जैनमेघदूतम् में दोष-विमर्श दोष : सामान्य परिचय : ____ दोष की किञ्चित् कालिमा ही मनुष्य को अप्रतिष्ठित कर देती है। दोष, दोष ही है, चाहे वह कितना हो क्यों न छोटा या बड़ा हो, चाहे एक हो या अनेक अथवा गुप्त हो या प्रकट । इसके लिए एक सामाजिक दृष्टान्त देख सकते हैं कि किसी कमनीय-कलेवरा-कामिनी का शरीर बहुत ही सुन्दर है, उसके अंगों की चारुता रसिकों के चित्त को अनायास अपनी ओर आकृष्ट कर रही है, परन्तु एकाएक उसके शुभ्र मस्तक पर कुष्ठ का एक अल्पकाय श्वेत चिह्न दिखाई पड़ जाता है। कुष्ठ के उस अल्पकाय एक चिह्न ने ही अप्सरासदृश मनोरम कान्तिवाली उस कामिनी के सुन्दर स्वरूप को हमेशा-हमेशा के लिए नष्ट कर डाला और सौन्दर्य की दृष्टि से उस कामिनी के रूप का मूल्य कोयले से भी कम कर डाला। दोष का ऐसा ही प्रभाव कविता-कामिनी के शरीर पर भी होता है । कितना ही सरस, सरल एवं सुन्दर काव्य क्यों न हो, यदि उसमें एक छोटी सी भी त्रुटि कहीं झलकती मिल गई तो सारा का सारा काव्य महत्त्वहीन हो जाता है । काव्य की समग्र सरलता उस एक त्रुटि के अन्तगत निहित होकर नीरसता में परिणत हो जाती है। त्रुटि रूपी वह कर्णकटु शब्द सुई की तरह चुभने लगता है और चित्त में विरसता उत्पन्न कर देता है। इस बात का अभिप्राय यही है कि कवि का यह परम धर्म होता है कि वह अपने काव्य को इन काव्य-दोषों से बचाने का हर सम्भव प्रयत्न करे। इसी कारण यह अत्यन्त आवश्यक भी होता है कि कवि अपने काव्य को रस और गुण से सम्पन्न बनाने के पूर्व दोषों से बचाये । ___संस्कृत साहित्य-शास्त्र में आरम्भकाल से ही दोषों का वर्णन मिलता है। यहाँ तक कि प्रायः समस्त काव्यशास्त्रमर्मज्ञ आचार्यों ने काव्य दोषों का विवेचन पूर्व में किया है, काव्य-गुण आदि का विवेचन तत्पश्चात् । यह मानव-स्वभाव की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति का ही परिणाम है, तभी तो वैदिक ऋषि ने भी अपनी प्रार्थना में दुरित के परिहार की वाञ्छा पूर्व में की है और पश्चात् में भद्र आदि की कामना विश्वानि देव सवितुर्दुरितानि परासुव, यद्भद्र तन्न आसुव ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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