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१८४ : जैनमेघदूतम् "वनलक्ष्मी" इस श्लेषयुक्त विशेषण द्वारा अप्रकृत का कथन होने से समासोक्ति; "वल्ल्यो लोलेः किशलयकरास्थलीलां' में अनुप्रास अलङ्कार तथा इन उपर्यक्त अलङ्कारों के संयोग से संकर अलङ्कार भी स्पष्ट हो रहा है।
इस प्रकार आठ अलङ्कारों का समावेश होने पर भी इस श्लोक का स्वरूप व भाव कितना सुन्दर बना है। यही कारण है कि आचार्य मेरुतुङ्ग का यह प्रयास अत्यन्त प्रशंसनीय बन गया है, जो उनकी अलङ्कारनिरूपण प्रतिभा का प्रकाशक भी है। आचार्य मेरुतुङ्ग के श्लेष-प्रयोग भी प्रशंसनीय हैं। आचार्य मेरुतुङ्ग ने श्लेष का इतना गहन चक्कर कहींकहीं चला दिया है कि सामान्यजन चक्कर में पड़ जाता है। वह श्लेष के उस दूर्भेद्य किले की ऊँची-ऊँची प्राचीरों के समीप भी नहीं पहुँच पाता, उसे भेदकर अन्दर प्रवेश करना तो बहुत दूर की बात है। फिर भी ऐसा एकाध स्थल पर ही हुआ है। सामान्यतः आचार्य मेरुतुङ्ग के श्लेष-प्रयोग भी महाकवि कालिदास के श्लेष-प्रयोगों की भाँति स्पष्ट एवं बोधगम्य हो हैं।
निष्कर्षतः आचार्य मेरुतुङ्ग के अलङ्कार-विवेचन के विषय में यही कहा जा सकता है कि जिन-जिन अलङ्कारों का प्रयोग आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने काव्य में किया है, वे सभी अलङ्कार साहित्यशास्त्र के प्रमुख अलङ्कार हैं।
*अतः ऐसे अलङ्कारों का प्रयोग करने वाला कवि और उनका काव्य भला उच्चकोटिक एवं सर्वप्रमुख कैसे न होता अर्थात् जैनमेघदूतम् में प्रतिपादित इन अलङ्कारों के निरूपण के आधार पर कवि ने काव्य में पर्याप्त सुन्दरता सन्निहित कर दी है। यही कारण है कि अपने अलङ्कत काव्यशिल्प द्वारा जैनमेघदूतम् ने साहित्य-जगत् में महती प्रतिष्ठा एवं प्रशंसा अजित की है।
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