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भूमिका : १८३
वस्तुतः काव्यद्वयों में प्रयुक्त ये अलङ्कार अपने-अपने भावाभिव्यञ्जन में पूर्णतः समर्थ हैं । महाकवि कालिदास के अलङ्कार - प्रयोग अपने साथ एक विचित्र चमत्कृति लेकर प्रस्तुत होते हैं । उनमें स्पष्टता और सरलता मिलती है । किसी भी रसिक को मेघदूत के अलङ्कार प्रयोगों में उलझना नहीं पड़ता है । क्योंकि श्लोकों के भाव अलङ्कारों में उलझे नहीं हैं । यही कारण है कि श्लोकों में सन्निहित अलङ्कार स्वयमेव स्पष्ट होते मिलते हैं । इन अलङ्कारों में चाहे उपमा हो, उत्प्रेक्षा हो या फिर श्लेष, सभी अपनी स्थिति की अभिव्यक्ति में पूर्ण समर्थ होकर ही मेघदूत में कालिदास द्वारा प्रयुक्त किये गए हैं। अतः कालिदास के ये अलङ्कारप्रयोग सामान्यजन द्वारा सद्यः ग्राह्य हैं । इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग के भी अलङ्कार प्रयोग किसी भी रूप में महाकवि कालिदास के अलङ्कारप्रयोगों से कम नहीं हैं । जैनमेघदूतम् में प्रयुक्त प्रत्येक अलङ्कार अपनी अभिव्यक्ति में पूर्ण समर्थ हैं तथा जिस भी श्लोक में व्यवहृत हुए हैं, उस श्लोक के रूप-सौन्दर्य के सर्वथा अभिवृद्धिकारक ही सिद्ध हुए हैं ।
आचार्य मेरुतुङ्ग की इस अलङ्कार प्रस्तुति के विषय में विशेष ध्यातव्य यह है कि इन्होंने अपने एक-एक श्लोक में सात-सात, आठ-आठ अलङ्कारों का भी सुनियोजन कुछ इस ढंग से कर दिया है कि एक ही श्लोक में इतने अलङ्कारों के समूह के सन्निहित होने पर भी उस श्लोक का मूल भाव और बाह्य शिल्प किञ्चिदपि नष्ट नहीं होने पाया है । ऐसा ही एक श्लोक देखा जा सकता है, जिसमें एक साथ आठ अलङ्कारों को आचार्य मेरुतुङ्ग ने समाहित कर रखा है
वाता वाद्यध्वनिमजनयन् वल्गु भृङ्गा अगायंस्तालान् दधे परभृतगणः कीचका वंशकृत्यम् । वल्ल्यो लोले: किशलयकरैर्लास्यलीलां च तेनुस्तद्भक्त्येति व्यरचयदिव प्रेक्षणं वन्यलक्ष्मीः ' ॥
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यहाँ पर "वनलक्ष्मी" आदि अप्रकृत से प्रकृत वादक है, भृंग जिसमें मधुर गीत गा रहे हैं, आदि कारण निदर्शना अलङ्कार; लताओं का नर्तकी के समान नृत्य करने के कारण अतिशयोक्ति अलङ्कार; किशलय और कर में अभेद होने के कारण रूपक अलङ्कार; “तेनुस्तद्भवत्येति" इस क्रिया का एकत्व कोने के कारण दीपक अलङ्कार; श्लोक के पूरे भाव में उत्प्रेक्षा होने से उत्प्रेक्षा अलङ्कार;
१. जैनमेघदूतम्, २/१४ ।
" वायु ही " जिसमें की उपमा दी जाने के
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