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________________ १८२ : जैनमेघदूतम् हृति, अप्रस्तुतप्रशंसा, दीपक, आक्षेप, विभावना, विरोध, व्याजस्तुति, पर्यायोक्त, समाधि, प्रत्यनीक, विशेष, हेतु, जाति, भाव, अवसर, अतिशय, और निषेध आदि ऐसे अलङ्कार हैं, जो कालिदासीय मेघदूत में नहीं उपलब्ध होते हैं । इस विषय में हमारा कथन यही हो सकता है कि अपनेअपने काव्यों में प्रयुक्त अलङ्कारों के निरूपण में दोनों ही कवियों ने पर्याप्त सूझ-बूझ का प्रदर्शन किया है; क्योंकि अपने-अपने इन काव्यों में प्रयुक्त उपर्युक्त स्वतन्त्र अलङ्कार प्रयोग इसके स्पष्ट प्रमाण जो हैं । इस प्रकार दोनों काव्यों में प्रयुक्त उपर्युक्त समस्त अर्थालङ्कार अपनी भावाभिव्यक्ति में पूर्ण समर्थता प्राप्त किये हुए हैं । यहाँ पर विशेष रूप से दृष्टिगत होता है कि अलङ्कारों के प्रयोग में आचार्य मेरुतुङ्ग ने अधिक उत्साह प्रदर्शित किया है। क्योंकि उन्होंने जैनमेघदूतम् में शब्दालङ्कारों एवं अर्थालङ्कारों के अन्तर्गत लगभग अड़तालीस अलङ्कार प्रयुक्त किये हैं, जबकि महाकवि कालिदास ने अपने मेघदूत में लगभग पैंतीस अलङ्कारों का ही सुनियोजन किया है। दोनों कवियों द्वारा प्रयुक्त शब्दालङ्कारों एवं अर्थालङ्कारों की उपर्युक्त संख्या, दोनों कवियों की अलङ्कार - नियोजन- कला के प्रति सिद्धहस्तता को निदशित करती है । परन्तु यहाँ पर दोनों काव्यों के अलङ्कार -निरूपण के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है कि महाकवि कालिदास यहाँ कुछ न्यून प्रतीत होते हैं, परन्तु इसका एक विशेष और महत्त्वपूर्ण कारण है कि महाकवि कालिदास को अलङ्कारों के निरूपण में अधिक समय व स्थान ही नहीं मिला। क्योंकि उनका यह मेघदूत काव्य मात्र ११५ श्लोकों में ही समाप्त हो गया है । मात्र एक सौ पन्द्रह श्लोकों में निबद्ध इस लघुकाय काव्य में इतने ही अलङ्कारों का सुनियोजन होना - स्वयं में आश्चर्य है । इस लघुकाय मेघदूत में इससे अधिक और कितने अलङ्कार निरूपित किये जा सकते थे । जबकि इसके विपरीत आचार्य मेरुतुङ्ग को किञ्चित् विस्तृत क्षेत्र मिला है - अलङ्कार - निरूपण के लिए। क्योंकि उनका जैनमेघदूतम् काव्य १९६ श्लोकों में निबद्ध कालिदासीय मेघदूत की अपेक्षा किञ्चित् बृहदकाय हो है । अतः उन्हें अलङ्कारों के निरूपण के लिए अधिक स्थान व समय भी प्राप्त हुआ है । यहाँ पर यह कहना कि आचार्य मेरुतुङ्ग महाकवि कालिदास की अपेक्षा अलङ्कारों के प्रयोग में अधिक निपुण हैं, सङ्गत नहीं प्रतीत होता है । हाँ ! इतना अवश्य कहा जा सकता है कि आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने काव्य में कालिदासीय मेघदूत की अपेक्षा किञ्चित् अधिक अलङ्कारों को प्रयोग में लिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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