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भूमिका :९ त्मक या क्रमबद्ध पारस्परिक साहित्य का अद्यावधि अप्राचुर्य है । इसलिए इस काव्य-विधा का आदिस्रोत खोज निकालना अति दुश्शक है । पर प्राचीन वैदिक काल से ही दूतकाव्य के आरम्भिक उत्स के प्रति शोध प्रारम्भ करने पर इस विधा के अनेक स्रोत प्राप्त होने लगते हैं।
ऋग्वेद-ऋग्वेद में सरमा-पणि, इन्द्र-इन्द्राणी, यम-यमी आदि अनेक दूत-सम्वादात्मक कथाएँ उल्लिखित मिलती हैं। अतः ऋग्वेद को ही दूतकाव्य परम्परा में दूतकाव्य का आदिस्रोत माना जा सकता है, क्योंकि भारतीयसाहित्य में ऋग्वेद ही सर्वप्राचीन ग्रन्थ है। इस वेद में सर्वप्रथम पशुओं द्वारा दूत कार्य करने का उल्लेख मिलता है। आचार्य बहस्पति को गायों का जब पणि लोग अपहरण करके ले जाते हैं और उन गायों को एक गुफा में छिपा देते हैं, तब इन्द्र उन गायों की खोज के लिए सरमा नामक कुतिया को पणियों के पास भेजते हैं। सरमा पणियों के स्वामी असुर बल के नगर बलपुर में पहुँचती है और वहाँ जाकर गुप्तस्थान में छिपायी गयी उन गायों को खोज निकालती है। इस अवसर पर पणि लोग सरमा को अपनी तरफ मिलाना चाहते हैं। इस सम्वाद से इतना तो यह अवश्य स्पष्ट होता है कि भारतीय साहित्य में पशुओं को दूत के रूप में भेजने की परम्परा अति प्राचीन है।
इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में ही एक अन्य कथा भी उपलब्ध होती है। इसमें श्यावाश्व ऋषि राजा रथवीति के पास उनकी पुत्री के प्रति अपना प्रणय-सन्देश रात्रि के माध्यम से भेजते हैं। इसका उल्लेख आचार्य शौनक द्वारा प्रणीत बहदेवता में भी मिलता है। ऋग्वेद में ही इसी प्रकार का एक दूसरा सम्वाद यम-यमी के प्रसंग का भी मिलता है।
इस तरह ऋग्वेद में ही इन्द्र-इन्द्राणी, यम-यमी, सरमा-पणि आदि अनेक दूत-सम्वादात्मक कथाओं का उल्लेख मिलता है। अतः साधारणतः ऋग्वेद को ही इस दूतकाव्य-परम्परा का आदिस्रोत माना जाता सकता है ।
वाल्मीकि रामायण-वाल्मीकि रामायण में भी दूत-सम्प्रेषण सम्बन्धी
१. ऋग्वेद, १०८।१०८ । २. वही, ५।६१।१७-१८-१९ । ३. बृहद्देवता, ५।७४-७५ । ४. ऋग्वेद, १०।१०।१४ ।
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