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________________ नमेघदूतम् एवं तात्त्विक-सिद्धान्तों के उच्च तत्त्वों को भी समाविष्ट कर दिया । अतः इन जैन कवियों के दूतकाव्यों में साहित्यिक सौन्दर्य के साथ ही साथ आध्यात्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्त भी प्रतिपादित मिलते हैं । तीर्थकर पार्श्वनाथ एवं नेमिनाथ सदृश महापुरुषों के जीवन-वृत्तों को अपने काव्यों का आधार बनाकर इन जैन कवियों ने अपने नीरस से नीरस धार्मिकसिद्धान्तों को सहृदयजन-आस्वाद्य बना दिया है। ___ इन नवीन संस्कारों के कारण यह पूर्णरूप से स्पष्ट हो जाता है कि सर्वसाधारण जनमानस में इन दूतकाव्यों के प्रति विशेष आदरणीय स्थान निर्मित हो चुका था। इस सम्बन्ध में श्रीयुत चिन्ताहरण चक्रवर्ती एक स्थान पर लिखते हैं कि "और यदि ऐसा न होता तो यह सम्भव नहीं था कि विविध धर्मों के आचार्य और नेता अपने नीरस धर्म सिद्धान्तों और नियमों का प्रचार करने के लिए इस साहित्य-विधा का आधार ढंढते !" इसके अतिरिक्त सर्वसाधारण-जन में दूतकाव्यों की लोकप्रियता का एक कारण यह भी है कि इन दूतकाव्यों के चरित्रनायक व्यक्ति, कोई काल्पनिक या ऐतिहासिक व्यक्तियों में से न होकर, पुराणवर्णित महापुरुष आदि हैं । हिन्दू कवियों का मन राम-सीता और राधा-कृष्ण के कथानकों के प्रति अत्यधिक आसक्त होने के कारण ही हिन्दू कवियों के दूतकाव्यों में चरित्रनायक का स्थान प्रमुखतः राम एवं कृष्ण को मिला है। इसी प्रकार जैन कवियों ने पार्श्वनाथ, नेमिनाथ एवं स्थूलभद्र जैसे महापुरुषों को अपने दूतकाव्यों के चरित्रनायक पद पर प्रतिष्ठित किया है। इन महापुरुषों के आदर्शों के प्रति जनमानस पूर्व से ही आस्थावान् था, अतः अपने आदर्श पुरुष के चरित्र से सम्बन्धित काव्यों को ग्रहण करना उनके लिए कोई विशेष बात नहीं थी, बल्कि स्वाभाविक ही था। इस प्रकार दूतकाव्य ने जनमानस को अन्य संस्कृत रचनाओं को अपेक्षा अधिक मोह लिया था, यह बात मात्र उल्लिखित अगणित संस्कृत दूतकाव्यों के अस्तित्व से ही प्रमाणित नहीं होती, प्रत्युत इस बात से भी होती है कि निकट भूतकालीन भाषा कवियों ने भी इस प्रकार के साहित्य की रचना आवश्यक समझ कर अनेक भाषाओं में अपने दूतकाव्य रचे हैं (संस्कृत भाषा में रचित दूतकाव्यों का संक्षिप्त उल्लेख आगे किया गया है)। दूतकाव्यों के विकास का यही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण था। पश्चात् के सभी कवियों ने इसी विधा को अपनाकर अपने-अपने दूतकाव्यों की रचना की है। दूतकाव्य के आदिस्रोत : दूतकाव्य की इस परम्परा के सम्बन्ध में किसी विवरणात्मक, व्याख्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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