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भूमिका : ७ माधव में मिलता है ।' सप्तम एवं अष्टम शती के मध्य के कवि भामह ने स्पष्टतः ऐसे कवियों का उल्लेख किया है, जो पवन, मेघ, चन्द्र आदि अजीव एवं मूक प्राणियों से अपने काव्य में दौत्य - कर्म सम्पादित करवाते थे । अतः शायद भामह के काल के दूतकाव्य ही कालिदास के मेघदूत के प्रतिरूपक थे, यह उचित ही स्पष्ट होता है ।
उपरान्त के समस्त दूतकाव्य प्रायः मेघदूत के आधार पर ही रचे गये हैं, क्योंकि उन दूतकाव्यों में पदे पदे कुछ ऐसे लक्षण परिलक्षित होते हैं । यहाँ तक कि प्रायः एक-दो काव्य छोड़कर शेष सभी दूतकाव्य मन्दाक्रान्ता वृत्त में ही रचे गये हैं (मेघदूत की रचना मन्दाक्रान्ता वृत्त में की गयी है) । विषय भी प्रायः वही है, जो मेघदूत में है अर्थात् एक प्रेमी का अपने प्रेमपात्र के पास अपना प्रेम सन्देश भेजना। फिर भी, इन अर्वाचीन दूतकाव्यों में मेघदूत से जहाँ इतना कुछ समानताएँ हैं, वहीं यत्र-तत्र कुछ विभिन्नताएँ भी हैं । उदाहरणार्थ - जहाँ पूर्व के दूतकाव्यों में मेघ एवं पवन जैसे अजीव पदार्थों को दूत बनाया जाता था, वहीं इन परकालीन दूतकाव्यों में पशुओं एवं मनुष्यों ने दूत का स्थान ग्रहण कर लिया। और तो और भक्ति, मन एवं शील आदि को भी दूत बनाकर दूतकाव्यों की रचनाएँ प्रारम्भ कर दी गईं । ४
इन सब विशेषताओं के अतिरिक्त दूतकाव्य-साहित्य के विकास के सम्बन्ध में सबसे अद्भुत बात जो दृष्टिगत हुई, वह है- इन परवर्ती काव्यों में शान्त रस का समावेश, जो सम्भवतः सर्वप्रथम जैन कवियों द्वारा हो प्रारम्भ हुआ । इन जैन कवियों ने, इस दूतकाव्य - साहित्य की परम्परा को पूर्णतया एक नवीन ही आयाम दे डाला। पूर्व के दूतकाव्य, जो सामान्यतः शृंगार रस के वातावरण से आकण्ठ पूरित रहा करते थे; इन कवियों ने दूतकाव्यों के उस शृंगारिक वातावरण को शनैः-शनैः शान्त रस की ओर अभिमुख कर इस दूतकाव्य - परम्परा को सर्वथा एक नवीन ही दिशा प्रदान कर डाली है ।
त्याग और संयम को ही जीवन का प्रमुख पाथेय समझने वाले इन जैन कवियों ने प्रेम तथा शृंगार - प्रचुर इस काव्यपरम्परा में अपनी संस्कृति
१. मालतीमाधव, अध्याय ९ ।
२. काव्यालंकार, १ ४२-४४ ।
३. हरिणसन्देश, उद्धवसन्देश इत्यादि ।
४. मनोदूत, शीलदूत इत्यादि ।
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